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अष्टम अध्याय
सामान्य जीवन-शैली देश के आर्थिक विकास में मनुष्य की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। मनुष्य के द्वारा ही उत्पादन के साधनों का उचित विदोहन सम्भव है । आर्थिक क्रियायें उपभोक्ता के लिये ही की जाती हैं । अतः उपभोग ही उत्पत्ति का आधार है और वही उत्पत्ति का मार्ग-निर्धारण करता है। व्यक्ति के आर्थिक जीवन का अनुमान उसके उपभोग से ही लगाया जा सकता है। कार्ल मार्क्स का भी विचार है कि मानव का जीवन स्तर उत्पादन के ढंग पर निर्भर करता है। मनुष्य को उपभोग हेतु जो उपलब्ध होता है वह तत्कालीन आर्थिक व्यवस्था का फल होता है और व्यवस्थित उपभोग से ही मनुष्य का आर्थिक कल्याण सम्भव होता है।' अधिक पौष्टिक आहार करने वाले, स्वास्थ्यप्रद आवासगृहों में रहने वाले, स्वस्थ और प्रसन्नचित्त लोगों की कार्यकुशलता और उत्पादन शक्ति निश्चय ही अधिक होगी।
आगमों के रचनाकाल में भी आर्थिक विकास के लिये मनुष्य के शारीरिक और बौद्धिक विकास को महत्त्व दिया गया था । स्थानांग में दस प्रकार के सुखों में शारीरिक सुख को प्रथम स्थान दिया गया है। ज्ञाता. धर्मकथांग से ज्ञात होता है कि समाज में मनुष्य के सर्वांगीण विकास की ओर ध्यान दिया जाता था ।
निशीथचूर्णि में उल्लेख है कि जहाँ निवास के लिए सरोवरों और तालाबों से युक्त बस्ती हो, खाने के लिये शालि, इक्षु आदि धान्यों की प्रचुरता हो, गो, महिष आदि पशधन की अधिकता हो और जहाँ सुन्दर वस्त्रों से अलंकृत शरीर वाले लोग निवास करते हों वही स्थान उत्तम है।
१. सिन्हा, जे० एन० : मार्क्सवादी नैतिक सिद्धान्त, पृ० २१९ २. स्थानांग १०/८३ ३. ज्ञाताधर्मकथांग, १/२१ ४. निशीथचूणि, भाग ३, गाथा ४३६०