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१८० : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन
घोष' आदि विभागों में विभक्त था जहाँ विभिन्न पदाधिकारी एवं राजकर्मचारी नियुक्त थे। शासन व्यवस्था के लिये मुख्य यवराज, श्रेष्ठि, अमात्य, पुरोहित आदि सहायक पुरुष तो होते ही थे इसके अतिरिक्त जैन साहित्य में गणनायक, दंडनायक, राजेश्वर, सेनापति, तलवार, मांडविक, कौटुम्बिक, महामन्त्री, मंत्री, भण्डारी, गणक, द्वारपाल, अंगरक्षक, दूत, सन्धिपाल आदि राज्याधिकारियों का उल्लेख मिलता है । राज्य की आय का बहुत बड़ा भाग अधिकारियों के वेतन पर व्यय होता था । ऊँचे पदाधिकारियों को बहुत धन दिया जाता था जिससे कोश का एक बड़ा भाग निकल जाता था । कौटिलीय अर्थशास्त्र से ज्ञात होता है कि मौर्यकाल में राजकीय आय का १/४ भाग अधिकारियों के वेतन पर व्यय होता था । व्यवहारभाष्य में राजकीय आय से राजकर्मचारियों को वेतन देने का उल्लेख है ।
सैन्य-व्यवस्था पर व्यय
आंतरिक शान्ति और बाह्य सुरक्षा के लिये राजा विशाल सेना रखते थे, सेना के चार अंग होते थे- हस्तिसेना, अश्वसेना, रथसेना और पदातिसेना, इसी कारण इसे चतुरंगिणी कहा जाता था । स्थानांग में भैंसों की सेना का भी उल्लेख है। सेना की पूरी व्यवस्था यथा सेना के पशुओं, अस्त्र-शस्त्रों तथा सैनिकों और उनके अध्यक्षों के भरण-पोषण और उनके वेतन आदि पर राज्य का बहुत सा धन व्यय होता था । राजप्रश्नीय से ज्ञात होता है कि कैकयार्ध का राजा प्रदेशी राज्य की आय का १/४ भाग सेना पर व्यय करता था । खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख से पता
१. बृहत्कल्पभाष्य, भाग २, गाथा १०८८-९५
२. प्रश्नव्याकरण ४/८ ; निशीथचूर्णि भाग २ गाथा २५०२
३. ज्ञाताधर्मकथांग १/२४; औपपातिक सूत्र ४० ; निशीथचूर्णि भाग २ गाथा
२५०५-३
४. कौटिलीय अर्थशास्त्र, ५ / ३ / ९१
५. व्यवहारभाष्य, गाथा २९
६. ज्ञाताधर्मकथांग, ३३; भगवतीसूत्र ७/९/७ : स्थानांग ५/५७ ७. राजप्रश्नीय, सूत्र ४३