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पंचम अध्याय : १४३
गया है।' ताँबे के कार्षापण का सोलहवाँ भाग माषकार्षापण था । ताँबे का एक छोटा सिक्का काकिणी भी था जो दक्षिण भारत में प्रचलित था। उत्तराध्ययनचूर्णि में इसका मूल्य रुवग का १/८० भाग बताया गया है। इसी प्रकार रुवग का १/२० भाग 'विंशोपक' नाम का सिक्का भी प्रचलित था। निशीथचूणि के अनुसार प्रतिदिन के व्यवहार में ताम्र के सिक्कों का प्रयोग किया जाता था ।५ वसुदेव हिण्डी में एक व्यापारी का उल्लेख हुआ है जिसने व्यापार में व्यवहार हेतु पणों से भरी बोरी गाड़ी रखी थी, जब वह एक सार्थ के साथ यात्रा कर रहा था तो मार्ग में उसकी बोरी कट गई और उसके सारे पण गिर गये, वह अपनी गाड़ियों को रोककर पण इकट्ठा करने लगा। सारा सार्थ आगे निकल गया। वह बीहड़ जंगल से रह गया । चोरों ने उसे अकेला पाकर उसका सारा धन लूट लिया । वसुदेव हिण्डी से ज्ञात होता है कि एक तीतर का मूल्य एक "कहावण' ( कार्षापण ) था। निश्चय ही यहाँ ग्रन्थ कार का अभिप्राय ताँबे के कार्षापण से रहा होगा, क्योंकि अन्य वस्तुओं के मूल्य को देखते हुये एक तीतर का मूल्य रजत कार्षापण नहीं हो सकता।
उत्तराध्ययनणि में एक मूर्ख "द्रमक" ( भिक्षुक ) की कथा मिलती है जिसने “काकिणी" के लिये अपने हजार कार्षापण खो दिये थे।' वसूडेवहिण्डी में "निप्फाव" नामक सिक्के का भी उल्लेख हुआ है वह स्पष्ट नहीं होता कि यह किस धातु का है पर ऐसे एक सिक्के में एक आदमी को भोजन कराया जा सकता था। इससे प्रतीत होता है कि यह
१. मनुस्मृति ८/१३० २. बृहत्कल्पभाष्य, भाग २, गाथा १९६९ ३. उत्तराध्ययनचूणि ४/१६१ ४. वही ४/१६१ ५. 'ताम्रमयं वा जं णाणगं ववहरति'
निशीथचूणि, भाग ३, गाथा ३०७० ६. 'संववहार निमित्त पषाण भरिओ'
___ संघदासगणि-वसुदेवहिण्डी भाग १, पृ० १३ ७. वसुदेवहिण्डी, भाग १, पृ० ५७ ८. उत्तराध्ययनचूणि ४/१६२ ९. वसुदेवहिण्डी, भाग १, पृ० १४४