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षष्ठ अध्याय : १४९
करने हेतु किराये पर भूमि ली जाती थी।' बँटाई पर काम करने वाले किसानों द्वारा अपने स्वामियों को प्रदत्त उत्पादन-अंश का ग्रन्थों में स्पष्ट उल्लेख तो नहीं है, पर कुछ ऐसे उल्लेख हैं जिनमें भाइलग्गों के साथ कठोर व्यवहार न करने के आदेश दिये गये हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि भाइलग्गों की आर्थिक दशा बहुत अच्छी नहीं रही होगी, भूमि की उपज का अधिकांश भूस्वामी, गाथापति ले जाते होंगे फलतः उनके पास अपार सम्पत्ति एकत्र हो जाती थी तथा श्रमिकों और भागीदारों को अपनी छोटी से छोटी आवश्यकताओं के लिये भी अपने भूस्वामियों पर निर्भर रहना पड़ता होगा। उत्पादन में सक्रिय भागीदार होने पर भी इस वर्ग को उचित प्रतिफल नहीं मिलता होगा। २-पारिश्रमिक तथा वेतन
श्रमिक के शारीरिक और मानसिक श्रम के बदले में उसे दिया गया राष्ट्रीय आय का निश्चित अंश वेतन या पारिश्रमिक कहा जाता है। उच्चवर्गीय जन यथा आचार्य, वैद्य, अध्यक्ष द्वारा अजित आजीविका को वेतन कहा जाता था। इसी प्रकार भूमिहीन किसान, श्रमिक, कर्मकर आदि की अर्जित आजीविका भृत्ति कही जाती थी।
श्रमिकों को भृत्ति देते समय इस बात का ध्यान रखा जाता था कि भृत्ति से उनका भरण-पोषण भलीभाँति हो सके। श्रमिक का भोजन-पानी बन्द करने वाला या श्रम के अनुपात में कम भृत्ति देने वाला पापी माना जाता था।" नीतिवाक्यामृतम् में उल्लेख है कि स्वामी को अपने आश्रित को इतना पर्याप्त धन देना चाहिये जिससे वह पूर्ण सन्तुष्ट हो सके।
१. व्यवहारसूत्र ९/१७, १८ २. प्रश्नव्याकरण २/१३ ३. निशीथचूणि भाग ४, गाथा ६०८०; नीतिवाक्यामृतम् १४/३ ४. 'भत्ती णाम भयगाणं कम्मकराणं ति वुत्तं भवति' ।
निशीथचूर्णि भाग ३, गाथा ४८४८ ५. उपासकदशांग १/३२; आवश्यकचूणि भाग २, पृ० २८४ ६. तावद् देयं यावदाश्रिताः सम्पूर्णतामाप्नुवन्ति ।
नीतिवाक्यामृतम् २२/२२