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१४८ : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन उपज का १/६, १/८, या १/१२ वर्णित है।' उपज का बँटवारा करने वाला राजस्व अधिकारी 'द्रोणमापक' कहा जाता था, वह समग्र उत्पादन का १/६ भाग राज्य-अंश के रूप में ग्रहण करता था।२ सिंचाई सुविधा प्राप्त उर्वरक भूमि की लगान-दर अधिक होती थी । अपेक्षाकृत कम उपजाऊ और पथरीली भूमि की लगान दर कम होती थी । कौटिलीय अर्थशास्त्र में उल्लिखित है कि नई भूमि को उपजाऊ बनाने वाले कृषक को राज्य बीज, खेती के उपकरण और अन्य सुविधायें प्रदान करता था और कभीकभी कुछ समय के लिये लगान में कमी कर देता था । __ जैन साहित्य में उपलब्ध कूछ सन्दर्भो से ज्ञात होता है कि भूमि पर राजा के स्वामित्व के अतिरिक्त व्यक्तिगत स्वामित्व भी था। गाथापति और समाज का धनिक वर्ग भी पर्याप्त भूमि का स्वामी होता था। ये भूस्वामी स्वयं कृषि न करके उसे भूमिहीन कृषकों को सौंप देते थे और उनसे भूमि के बदले अंश के रूप में उपज का कुछ निश्चित अंश प्राप्त करते थे। प्रश्नव्याकरण में इस प्रकार बटाई पर खेती करने वाले भूमिहीन कृषकों को 'भाइलग्ग' कहा गया है। ___इससे यह स्पष्ट होता है कि सारी भूमि पर राज्य का अधिकार नहीं था, सम्भवतः राज्य द्वारा ग्रहण किया गया भूमि की उपज का १/६ भाग भूमि-स्वामित्व के लिये न होकर उसे सुरक्षा प्रदान करने के लिए कर के रूप में था। मेगस्थनीज के अनुसार जो किसान राज्य की भूमि जोतते थे, वे राज्य को उपज का १/४ भाग लगान के रूप में देते थे। यद्यपि निशीथचूर्णि में भी किराये पर भूमि लेकर कृषि करने का उल्लेख है किन्तु किराये की दर का उल्लेख नहीं है । व्यवहारसूत्र के अनुसार उद्योग स्थापित
१. मनुस्मृति ७/१३० २. खेर, एन० एन०–एगरेरियन एण्ड फिजिकल इकानोमी इन मौर्या एण्ड
पोस्ट मौर्या एज, पृ० २५४ ३. कौटिलीय अर्थशास्त्र २/१/१९ ४. उपासकदशांग १/२८; व्यवहारभाष्य ४/५३; उत्तराध्ययनचूणि २/११४,११८ ५. प्रश्नव्याकरण २/१३ ६. पुरी, बैजनाथ-इण्डिया एज डिस्क्राइब्ड बाई अर्ली ग्रीक, राइटस, पृ० १७ ७. 'जं च पराययं छेत्तं वारेंतेण वुत्तं एत्तियं ते दाहंति तं पि दायन्वं'
निशीथचूणि भाग ३, गाथा ४८४८