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१६२ : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन
में विभक्त हो गया था। आवश्यकता से अधिक पूँजी वाला धनी वर्ग और अत्यन्त निर्धन वर्ग। इससे समाज में आर्थिक विषमता व्याप्त हो गई थी। धनिकों में नगरश्रेष्ठि, गाथापति और सम्पन्न वणिक् थे। दूसरा शोषित वर्ग था जिसमें भूमिहीन किसान, श्रमिक और दास-दासी थे । उत्पादन में सक्रिय भागीदार होने पर भी इस वर्ग को उचित प्रतिफल नहीं प्राप्त होता था। धनी वर्ग निर्धनों का शोषण कर रहा था, इस प्रकार श्रम की अपेक्षा पूँजी का महत्त्व बढ़ गया था और एक प्रकार से आर्थिक-विषमता व्याप्त हो गई थी। जैसा कि सूत्रकृतांग से ज्ञात होता है कि स्वामियों द्वारा अत्यधिक शोषण करने पर कई बार सेवक विद्रोही हो जाते थे और वे स्वामियों की सम्पत्ति को ही समाप्त कर देते थे।' इसी प्रकार ज्ञाताधर्मकथांग से भी ज्ञात होता है कि धन्ना सार्थवाह का दास, स्वामी के कठोर व्यवहार के कारण घर से पलायित हो गया था और चोरी करने लगा। अपने स्वामी से प्रतिशोध लेने के लिए उसने धन्ना का सम्पूर्ण धन लूट कर उसके बेटे का भी अपहरण कर लिया था। __ आर्थिक विषमता की समस्या के समाधान हेतु हो जैनधर्म के प्रवर्तकों तथा आचार्यों ने 'अहिंसा','अस्तेय' तथा 'अपरिग्रह' के महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया था। उनमें से अहिंसा अणुव्रत में अपने आश्रितों को समय पर भोजन और समुचित वेतन आदि देने का विधान था। इस नियम का उल्लंघन करने पर गृहस्थ को अहिंसा अणुव्रत के अतिक्रमण का दोषी माना जाता था। तृतीय 'अस्तेय अणुव्रत' मानव को धार्मिक जीवन जीने की और अपनी आवश्यकता की वस्तुओं को न्याय और पुरुषार्थ से प्राप्त करने की प्रेरणा देता था। इसके विपरीत अनैतिक और असामाजिक रीति से अजित किया हुआ धन 'स्तेय' माना जाता था । अस्तेय-व्रत धारण करने से सहयोग और समता की भावना में वृद्धि होती थी।
महावीर ने गृहस्थ के लिए आवश्यकता से अधिक धन सम्पत्ति का संग्रह और उस पर आसक्ति को परिग्रह कहा है जो मुक्ति में बाधक है।
१. सूत्रकृतांग २/२/२१० २. ज्ञाताधर्मकथांग १८/१६, ३८ ३. उपासकदशांग १/२३ ४. उपासकदशांग १/३२, ३३, ३४, ३६;
आवश्यकचूणि भाग २, पृ० २८०, २८५, २८६ ५. प्रश्नव्याकरण ३/३