Book Title: Prachin Jain Sahitya Me Arthik Jivan
Author(s): Kamal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyashram Shodh Samsthan

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Page 176
________________ षष्ठ अध्याय : १६३ अतएव अपनी आवश्यकतानुसार धनसम्पत्ति रखना, उसमें आसक्त न होना अपरिग्रह व्रत है। इस सिद्धान्त से प्रभावित होकर समाज के अनेकानेक धनी व्यक्तियों ने स्वेच्छया अपनी आवश्यकता से अधिक सम्पत्ति को जनकल्याण के लिये अर्पित कर दिया था यथा उपासकदशांग में आनन्दगाथापति का उल्लेख प्राप्त होता है जिसने अपनी अनन्त इच्छाओं को नियंत्रित करते हये धन, सम्पत्ति, भोजन-वस्त्र के साथ-साथ अपनी अन्य उपभोग की वस्तुओं को भी सीमित किया था। महावीर की दृष्टि में आवश्यकता से अधिक अर्थ-संग्रह असमानता उत्पन्न करता है क्योंकि एक का संचय दूसरे का अभाव बन जाता है। जो व्यक्ति अपनी अपरिमित सामग्री को जरूरतमन्द लोगों में नहीं वितरित करता उनको मुक्ति नहीं प्राप्त होती । इस प्रकार महावीर ने अल्पपरिग्रही समाज की नींव डाली। नीतिवाक्यामृतम् में भी कहा गया है कि जो शरणागतों के लिये अपने धन का उपयोग नहीं करता उसके धन का कुछ लाभ नहीं है। इस प्रकार सम्पन्नों के अपरिग्रह तथा दान की भावना से विपन्नों की आवश्यकताओं की पूर्ति होती थी और समाज में आर्थिक समानता के आदर्श की स्थापना होती थी। १. उपासकदशांग १/३६; प्रश्नव्याकरण ५/१ २. वही १/२९ ३. 'असंविभागी णहु तस्स मोक्खो'–दशवकालिक ९/२३ ४. 'न खलु कस्यापि मा भूदर्थो यत्रासंविभागः शरणागतानाम्' सोमदेवसूरि-नीतिवाक्यामृतम् १/१६

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