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सप्तम अध्याय : १६५
लिये कर की आवश्यकता को देखते हये कर-निर्धारण में समानता के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है अर्थात् राज्य की प्रजा को अपने सामर्थ्य के अनुपात में कर देना चाहिये । प्राचीन जैन और हिन्दू-ग्रन्थों में आये संदर्भो से स्पष्ट होता है कि कर लगाते समय कर देने वाले की आर्थिक क्षमता का ध्यान रखा जाता था। जैन आगम ग्रंथ मुख्यतः दार्शनिक ग्रंथ होने के कारण कर-निर्धारण के बारे में कुछ उल्लेख नहीं करते । विपाकसूत्र में प्रजा को कष्ट देकर अत्यधिक धन-संग्रह करने वाले राजा को पापी कहा गया है। जिनसेन के आदिपुराण में उल्लेख है कि जिस प्रकार दूध देने वाली गाय को बिना पीड़ा पहुँचाये दूध ग्रहण किया जाता है उसी प्रकार राजा द्वारा भी प्रजा को बिना कष्ट दिये कर-ग्रहण करना चाहिये । नोतिवाक्यामृतम् के अनुसार भी प्रजा को पीड़ित करने वाले राजा का कोश रिक्त हो जाता है और राज्य की महान क्षति होती है क्योंकि भय के कारण या तो लोग व्यापार ही बन्द कर देते हैं या फिर छल-कपट का आश्रय लेते हैं। सोमदेव के अनुसार वृक्ष का मूल-छेदन करने वाला एक ही बार फल प्राप्त कर सकता है अर्थात् प्रजा को कष्ट देने वाला राजा एक ही बार धन प्राप्त कर सकता है। मनुस्मृति में भी स्पष्ट संकेत है कि राजा, प्रजा से उतनी ही मात्रा में कर ले जिससे राज्य की शासन-व्यवस्था विधिवत् संचालित हो सके और प्रजा का मूलउच्छेदन भी न होने पाये । शुक्रनीति में राजा को माली की भाँति कर ग्रहण करने का निर्देश देते हुये कहा गया है कि जिस प्रकार माली लता को तोड़े बिना पुष्प चुन लेता है उसी प्रकार राजा को प्रजा को कष्ट दिये बिना कर ग्रहण करना चाहिये।
आपत्तिकाल में रिक्त कोश की पूर्ति हेतु सोमदेवसूरि ने राजा को ब्राह्मणों और वणिकों का ऐसा धन अधिग्रहीत कर लेने का परामर्श दिया
१. स्मिथ एडम, दि वेल्थ आफ नेशन्स, भाग २ पृ० ३१० २. विपाकसूत्र १/२८ ३. पयस्विन्या यथा क्षीरं दोहेणोपजीव्यते । प्रजाप्येवं धनं धन दोहया नीति
पीडाकरैः । आदिपुराण १६/२५४. ४. नीतिवाक्यामृतम्, ८/११ ५. 'तरुच्छेदेन फलोपभोगः सकृदेव' वहो, १६/२५ ६. मनुस्मृति, ७/१११ ७. 'मालाकार इव ग्राह्यो भागो' - शुक्रनीति, ४/११०, २/१७३