Book Title: Prachin Jain Sahitya Me Arthik Jivan
Author(s): Kamal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyashram Shodh Samsthan

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Page 172
________________ षष्ठ अध्याय : १५९ ऋण लेने वाला बिना ऋण भरे ही मर जाये तो उसके उत्तराधिकारी को ऋण भरना पड़ता था।' गौतमधर्मसूत्र में भी उत्तराधिकारी को ऋण भरने के लिये कहा गया था। जैन साहित्य से ज्ञात होता है कि पैतृक ऋण की अधिकता से घबराकर कुछ गृहस्थ, साधु-जीवन अपना लेते थे। ___ जैन साहित्य में ऋण चकाने की निर्धारित अवधि का कहीं उल्लेख नहीं मिलता, किन्तु ऋण निश्चय ही निर्धारित अवधि के लिये ही दिये जाते होंगे और उसके व्यतीत हो जाने पर ही ऋणदाता अपना धन वापस लेने के लिये उक्त प्रयत्न करते होंगे। पाणिनि के अनुसार ऋण चुकाने की अवधि के आधार पर ऋणों के नाम रख दिये जाते थे यथा मास भर में चुकाये जाने वाला ऋण 'मासिक' और संवत्सर में चुकाये जाना वाला ऋण 'सांवत्सरिक' कहलाता था। इसी प्रकार निर्धारित ऋतुओं में वापस करने की शर्त पर भी ऋण लिया जाता था यथा ग्रीष्म में चुकाया जाने वाला 'ग्रेष्मक', वर्षाऋतु में चुकाया जाने वाला 'कलापक' और निर्धारित मासों यथा अग्रहायण में चुकाया जाने वाला 'आग्रहायणिक' और वसन्त में चुकाया जाने वाला 'वासन्तक' कहलाता था। इससे प्रतीत होता है कि उत्पादन की आवश्यकतानुसार ऋण दिये जाते थे और कृषि की उपज के तैयार हो जाने पर ऋण वापस चुकाने की व्यवस्था थी।" इस प्रकार यह स्पष्ट है कि प्राचीनकाल में ब्याज पर ऋण देने का कार्य प्रायः समाज के धनी, श्रेष्ठी, गाथापति, सार्थवाह और वणिक् करते थे, जिनकी पहुँच राज्य दरबार तक होती थी और वे कभी-कभी अनुचित लाभ उठाकर निर्धन और असहाय व्यक्तियों का शोषण करने लगते थे। ४-लाभ __ प्रबन्धक का भाग अथवा अंश ही लाभ है। पूंजी का ब्याज, भूमि १. कौटिलीय अर्थशास्त्र ३।११।३६ २. गौतम धर्मसूत्र २।२।३७ ३. सूत्रकृतांग १।२।२।१७९ ४. पाणिनि-अष्टाध्यायी ४/३।४९, ४।२।४८ ५. वही, ४।२।४८-४९

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