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१५८ : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन करते और उनके घर पर अपमानसूचक गंदी ध्वजा फहरा देते थे।' आवश्यकतानुसार राजकीय सहायता से भी अपना धन वापस पाने का प्रयत्न करते थे। विशेष परिस्थितियों में ऋणदाता ऋण का पूरा धन न मिलने पर उसका अर्धांश लेकर ही ऋणी को मुक्त कर देते थे।' निशीथचूर्णि से ज्ञात होता है कि यदि ऋणी ऋण चुकाने में असमर्थ होता तो उसे ऋणदाता की दासता स्वीकार करनी पड़ती और जब तक ऋण चुका नहीं लेता उसे दास बने रहना पड़ता था। निशीथचूर्णि के एक प्रसंग में एक स्त्रो ने एक तेली से तेल उधार लिया था और किसी कारणवश उसे लौटा नहीं पाई। उसका ब्याज इतना अधिक हो गया कि उस स्त्री को तेली की दासता स्वीकार करनी पड़ी। मनुस्मृति में भी अपने दिये हुये ऋण को बलपूर्वक ग्रहण करना न्यायोचित माना गया है। बृहत्कल्पभाष्य में वणित वणिकन्याय के अनुसार यदि ऋण लेने वाला स्वदेश में हो तो उसे अनिवार्य रूप से कर्ज चुकाना पड़ता था, परन्तु यदि वह समुद्र-यात्रा द्वारा विदेश गया हो और किसी दुर्घटनावश उसका सब कुछ चला गया हो और कठिनाई से मात्र अपना जीवन ही बचा पाया हो तो उसे ऋण से मुक्त कर दिया जाता था।
सूत्रकृतांग के अनुसार पिता-पितामह अथवा अपने किसी पूर्वज द्वारा लिया गया और वापस न चुकाया जा सका ऋण पैतृक ऋण होता था, जिसे चुकाना पुत्र, पौत्र अथवा उनके उत्तराधिकारी का उत्तरदायित्व होता था। कौटिलीय अर्थशास्त्र में भी ऐसी ही व्यवस्था है कि यदि
१. अणं रिणं पोच्चडं मइलं झंझडिया रिणे अदिज्जते वणिएहिं अणेगप्पगारेहि दुव्वयणेहि झडिया झंझडिया लताकसादिएहिं वा झडिता
निशीथचूणि भाग ३, गाथा ३७०४ २. राजकुलबलेन तं धारणिकं धृत्वा स्वल्पं द्रव्यं बलादपि गृह्णाति ।
बृहत्कल्पभाष्य, भाग ३, गाथा २६९१ ३. 'अद्धपदत्ते दाणेण तोसिएण धणिएण विसज्जितो'
निशीथचूर्णि भाग ३, गागा ३७५० ४. निशीथचूर्णि भाग ३, गाथा ४४८८ ५. मनुस्मृति ८/५० ६. बृहत्कल्पभाष्य, भाग ६, गाथा ६३०९ ७. सूत्रकृतांग १/३/२/२ १८९