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११८ : प्राचीन जैन साहित्य में वणित आर्थिक जीवन करते हुये भी समुद्र-पार देशों से व्यापार करते थे। चम्पा नगरी के साथवाह माकन्दी के पुत्र जिनपाल और जिनरक्षित ने बारह बार समुद्र-मार्ग से व्यापारिक यात्रायें की थीं। पूर्वी तट के ताम्रलिप्ति जलपत्तन से मलयद्वीप, सिंहलद्वीप, यवद्वीप, स्वर्णभूमि और चीन तक जलपोत जाते थे। वसुदेवहिण्डी से ज्ञात होता है कि चारुदत्त, राजा से अनुमति-पत्र लेकर चीन गया था वहाँ से व्यापार करके वह स्वर्णभूमि "वर्मा", कमलपुर "कम्बोली", यवद्वीप "जावा', सिंहल द्वीप होकर बर्बरदेश एवं यवण होता हुआ महाराष्ट्र के समीप पहुँचा था। ज्ञाताधर्मकथांग से भी ज्ञात होता है कि चम्पा नगरी के व्यापारी कलिका द्वीप गये थे। पश्चिमी समुद्र तट के भरुकच्छ और सोपारक जलपत्तनों से पाश्चात्य जंजीवार देशों से व्यापार होने के उल्लेख प्राप्त होते हैं।"
समद्र यात्रा प्रारम्भ करने के पर्व भी अनेक प्रकार की तैयारियां करनी पड़ती थीं। चूकि समुद्री यात्राओं में कई बार अनुमान से कहीं अधिक समय लग जाता था, इसलिये साथ में पर्याप्त मात्रा में खाद्य-सामग्री जल और ईधन रखा जाता था।' यात्रा आरम्भ करने से पूर्व राजा से अनुमति-पत्र लेना पड़ता था। अनुमानतः यह आज्ञापत्र या अनुमति-पत्र परिपत्र जैसा होता था। यात्रा की सुरक्षा के लिये प्रस्थान के पूर्व समुद्र देवता तथा कुलदेवता की पूजा की जाती थी और गुरुजनों का आशीर्वाद
१. ज्ञाताधर्मकथांग ९/४ २. संघदासगणि-वसुदेवहिण्डी भाग १/१४६ ३. रायसासणेण पट्टओ, अणुकूलेसुवात-सउणेसु आरुढो मि जाणवन्तं, उक्खित्तो
धूवो, चीणथाणस्य मुक्कं जाणवत्तं जलपहेण जलमओ विव पइभाइ लोगो, पत्ता मु चीगत्थाणं । तत्थ वणिज्जेऊण गयो मि सवण्णभूमि पुत्वदाहिणाष्णि पट्टणाणि हिंडिऊण कमलपूरं जवणदीवं सिंहले व वलं जेतूण पच्छिमे य बब्बर जवणे ।
वसुदेवहिण्डी भाग पृ० १/१३६, देखिये-मोतीचन्द्र, सार्थवाह पृ० १३२, १३८ ४. कालियदविं उत्तरेत्ति-ज्ञाताधर्मकथांग १७/२२ ५. उद्योतनसूरि-कुवलयमालाकहा, पृष्ठ ३६ : दे० मोतीचन्द्र, सार्थवाह, पृ. १३६ ६. भरेंति तेदुलाणं य समियस्स य तेलस्स य धयस्स य गुलस्स य गोरस्स य
उदगस्स य भायपाणं य ओसहाणं य भेसज्जाण य कट्ठस्य य पावरणाण य पहरणाण' ज्ञाताधर्मकथांग ८/६६