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पंचम अध्याय : १२३
हैं कि विदेशी व्यापारियों से लेनदेन में सोने के सिक्कों का प्रयोग होता था।
साधारणतः दूरस्थ देशों से होने वाला अधिकांश व्यापार विलासिता की वस्तुओं तक हो सोमित था। सूत्रकृतांग से पता चलता है कि राजा महाराजा विदेशों से विलासिता की वस्तुएँ मंगवाते थे ।'
राज्य निर्यात को प्रोत्साहन देता था क्योंकि निर्यात की हुई वस्तु शुल्क-रहित होती थी। लेकिन आयातित वस्तुओं पर शुल्क लगता था। इससे प्रतीत होता है कि आधुनिक अर्थनीति के समान ही आगमों के रचनाकाल में भी अपने देश के धन की वृद्धि के लिये निर्यात को प्रोत्साहन और वस्तुओं पर शुल्क लगाकर आयात को हतोत्साहित कर व्यापार में उचित समन्वय स्थापित किया जाता था। भारत से निर्यात होने वाली वस्तुओं की अधिकता और तुलना में आयात होने वाली वस्तुओं की कमी इस तथ्य की ओर इंगित करती है कि प्राचीनकाल में भारतीय व्यापार अत्यन्त अनुकूल परिस्थिति में था।
२-परिवहन विनिमय में परिवहन का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण योगदान है। राष्ट्र की आर्थिक समृद्धि यातायात के साधनों पर निर्भर रही है। कृषि और उद्योग से उत्पादित वस्तुओं का व्यापार यातायात के साधनों के अभाव में संभव न था।
प्राचीन जैन साहित्य में उपलब्ध सन्दर्भो से स्पष्ट है कि सम्पूर्ण भारत जल और स्थल मार्गों से जुड़ा हआ था। इनमें से कुछ मार्ग तो मध्य एशिया और पश्चिमी एशिया तक जाते थे ।३ सिकन्दर के आक्रमण के पश्चात् भारत की पश्चिमोत्तर सीमाओं पर विदेशियों का आधिपत्य व्यापारियों के लिये लाभदायक सिद्ध हुआ था। शक, पल्लव और कुषाण राजाओं ने भारतीय वणिकों के लिये मध्य एशिया के मार्ग खोल दिये थे।
१. सूत्रकृतांग १/२/३/१४५ २. ज्ञाताधर्मकथांग ८/८३९, सूरि उद्योतन-कुवलयमालाकहा, पृष्ठ ६७ ३. संधदासगणि-वसुदेवहिण्डी, भाग १ पृ० १४८ ४. थापर रोमिला-भारत का इतिहास, पृष्ठ ७९