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१३६ : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन सहायता देती थीं। इसी प्रकार पश्चिमी हवायें अफ्रीका या उसके आसपास के इलाकों से पश्चिमी भारत की यात्रा को सुविधाजनक बनाती रही हैं। चम्पा नगरी के व्यापारी अनुकूल वायु होने पर कलिकाद्वीप गये थे और वहाँ से अनुकूल वायु होने पर ही वापसी यात्रा हेतु प्रस्थान किये। वायु-मार्ग
प्राचीन भारतीय साहित्य में आकाश में उड़ने वाले देवयानों और विमानों का वर्णन मिलता है। परन्तु व्यापार अथवा किसी आर्थिक लाभ हेतु वायुमार्ग के उपयोग के सम्बन्ध में जैनग्रन्थों में कोई विवरण नहीं प्राप्त होता।
उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट होता है कि प्राचीनकाल में देशीय और अन्तर्देशीय व्यापार के लिये मुख्यतः जल और स्थल मार्ग ही थे। जल-स्थल के विभिन्न साधनों के परिणामस्वरूप व्यापार में महत्त्वपूर्ण वृद्धि हुई थी।
३-सिक्के प्राचीनकाल से ही भारत में वस्तुओं के क्रय-विक्रय और परस्पर विनिमय हेतु सिक्कों का प्रचलन था। पाणिनि के उल्लेखों से ज्ञात होता है कि वैदिककाल में स्वर्ण "निष्क' सिक्कों और आभूषण दोनों रूपों में प्रयुक्त होते थे ।२ जैन ग्रन्थ सूत्रकृतांग में 'मास', 'अर्धमास', और 'रुवग' को क्रय-विक्रय का साधन कहा गया है। पिडनियुक्ति के अनुसार दास-दासो को उनका पारिश्रमिक सोने, चाँदी और ताँबे में दिया जाता था। इससे स्पष्ट है कि उक्त धातुओं के सिक्के निर्मित किये जाते होंगे और श्रमिकों को उनका पारिश्रमिक सिक्कों के रूप में प्रदान किया जाता होगा। सिक्कों के प्रचलन से व्यापारिक गतिविधियों में भी सुविधा हो गई थी। सिक्कों के माध्यम से व्यापारी न केवल स्वदेश में अपितु विदेशों में भी व्यापार करते थे। १. राजप्रश्नीयसूत्र ४ २. पाणिनि-अष्टाध्यायी ५/११/१९ ३. कय-विक्कय-मास-अद्धमास-रुवग संववंहाराओ
सूत्रकृतांग २/२/७/३ ४. पिंडनियुक्ति गाथा ४०५ ५. कुवलयमालाकहा, पृ० ५८