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पंचम अध्याय : ११९ प्राप्त किया जाता था और वाद्यों की मंगल-ध्वनि के साथ यात्रा आरम्भ की जाती थी। कुवलयमालाकहा में धनदेव की कथा से ज्ञात होता है कि समुद्रपार देश में पहुँचते हो व्यापारी पोत से विक्रो योग्य माल उतारते, भेंट लेकर वहाँ के राजा के पास जाते और उसे प्रसन्न करके व्यापार की अनुमति प्राप्त करते और निर्धारित शुल्क चुकाने के बाद व्यापार आरम्भ कर देते । पत्तनों पर जलपोतों से लाये गये माल का भलीभांति निरीक्षण किया जाता और राजाज्ञा के बिना लाया गया माल छीन लिया जाता और व्यापारी को दण्डित भी किया जाता।"
आगमकाल में समद्र यात्रा अत्यन्त असुरक्षित थी इस कारण समुद्रयात्रा से सकुशल लौटने वाले बड़े भाग्यवान् समझे जाते थे । समुद्री यात्रा की कठिनाइयों को देखते हये सामान्यतः व्यापारी अपनो स्त्रियों को साथ नहीं ले जाते थे। उत्तराध्ययनस्त्र से ज्ञात होता है कि यदि कोई व्यापारी विदेशी स्त्री से अपना विवाह कर लेता तो उसे वह अपने साथ ले आता। पालित नाम के व्यापारी का विवाह विदेश में हो हो गया था। जब वह अपनी पत्नी को साथ लेकर लौट रहा था तो मार्ग में उसे पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका नाम उसने समुद्रपाल रखा।" जलमार्गों से यात्रा करने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था । सर्वोपरि तूफानों से जलयानों के डूबने की आशंका रहती थी। ज्ञाताधर्मकथांग से ज्ञात होता है कि चम्पा नगरी के सार्थवाह माकन्दी के पुत्र जिनपाल और जिनरक्षित जब बारहवीं बार समुद्रयात्रा पर निकले तो मार्ग में उनका पोत समुद्री तूफान में फँस गया, फलतः वह टुकड़े-टुकड़े हो गया। सार्थवाह-पुत्र बड़ी कठिनाई से लकड़ी के पटरों की सहायता से तैरते हुये रत्नद्वीप पहुचे । इसी प्रकार हस्तिशीर्ष के पोतवणिक् पोत से यात्रा कर रहे थे तो उनका पोत समुद्री तूफान में फंस गया और वह भटकते हये कलिकाद्वीप
१. गहिएसु रायवरसासणेसु-ज्ञाताधर्मकथांग ८/६७ २. वही ८/६७ ३. सूरि उद्योतन-कुवलयमालाकहा, पृष्ठ ६७ ४. उत्तराध्ययनचूणि ४/१२० ५. उत्तराध्ययन २१/२,४ ६. ज्ञाताधर्मकथांग ९/९-१२ (रत्नपुर भारत और चीन के मध्य में एक दीप
था जहाँ रत्नों की प्राप्ति होती थी उसकी पहचान नहीं हो सकी)