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चतुर्थ अध्याय : ९५ आदि धान्यों से निर्मित मदिरा को पेष्टी, बांस के अंकुरों से बनी मदिरा को "बंशीण" तथा फलों से निर्मित मदिरा को "फलसुराण" कहा जाता था । महाराष्ट्र मद्य की दुकानों पर प्रतीक रूप में "झया” (ध्वजा ) फहराई जाती थी । पाणागार राजकीय आय के साधन भी थे । कौटिलीय अर्थशास्त्र के अनुसार मद्य उद्योग पर राज्य का नियंत्रण था । मद्य - बनाने वाले को राज्य से आज्ञा लेनी पड़ती थी और राज्य को कर देना पड़ता था । मद्य उद्योग का निरीक्षण करने वाले अधिकारी को " सुराध्यक्ष" कहा जाता था ।
१० - चर्म उद्योग
जैन साहित्य के उल्लेखों से ज्ञात होता है कि आगमों के रचनाकाल में चर्म तथा उससे निर्मित वस्तुओं का व्यापार बृहद् स्तर पर था । खालों को अनेक प्रकार के मुलायम चमड़ों में परिवर्तित किया जाता था। ऋषि, मुनि आदि मृगचर्म और व्याघ्रचर्म का उपयोग करते थे । जैन साधु भी विशेष परिस्थितियों में बकरे, भेड़, गाय और भैंस के चर्म का प्रयोग कर सकते थे । चमड़े के बहुमूल्य वस्त्रों का भी प्रचलन था । आचारांग के अनुसार सिन्ध चमड़ों के लिये प्रसिद्ध था । वहाँ से पेसा, "पेसल, नीले मृग और कृष्ण मृग के चर्म बाहर भेजे जाते थे । बाघ, चीते और ऊँट के चमड़े से चादरें निर्मित की जाती थीं ।" जैन ग्रन्थों में चम्मकार ( चमार ) पदकार ( मोची) आदि के वर्णन आये हैं जो वाद्य यंत्र, मशक जूते आदि वस्तुएं बनाते थे । निशीथचूर्ण में विभिन्न प्रकार के जूतों के उल्लेख आये हैं, जिनमें एक तल्ले, दो तल्ले, आधे तल्ले, घुटनों तक के, जंघाओं तक के, आधा पैर ढकने वाले, पूरा पैर ढकने वाले जूते थे । कुणिक राजा के जूते कुशल कारीगरों द्वारा निर्मित थे, जिनमें
१. बृहत्कल्पभाष्य भाग ४ गाथा ३४।२
. २. बृहत्कल्पभाष्य, भाग ४ गाथा ३५३९
३. कौटिलीय अर्थशास्त्र २।२५।४२
४. अये एल गावि महिस मियाण अजिण त पचम होइ
बृहत्कल्पभाष्य, भाग ४ गाथा ३८२४
५. आचारांग २, ५।३।१४९
६. प्रज्ञापना १।१०६
७. एवापुड- सगल-कसिणं दुपडादीयं पमाणओकासिणां । कोसग खेल्लग वग्गुरी, खपुसा जंघ एद्धजंधा य । . निशीथचूर्णि भाग २ गाथा ९१४