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अध्याय ५ विनिमय
आर्थिक क्षेत्र में विनिमय का बड़ा महत्त्व है । लेन-देन, आदान-प्रदान अथवा एक वस्तु के बदले में दूसरी वस्तु लेना विनिमय कहा जाता है। किसी मनुष्य के लिए अपनी आवश्यकता की समस्त वस्तुओं का निर्माण सम्भव नहीं है, इसलिए वह वस्तुओं का परस्पर विनिमय कर अपनी आवश्यकताओं की पूति करता है। विनिमय दो प्रकार से किया जाता है-- (१) वस्तु से वस्तु की अदल-बदली और (२) वस्तु को द्रव्य के बदले ग्रहण या प्रदान अर्थात् क्रय-विक्रय । प्राचीनकाल में व्यापार की ये दोनों ही पद्धतियां प्रचलित थीं। वस्तु के विनिमय में कई प्रकार की कठिनाइयां आ जाती थीं, इसीलिए व्यापार के लिए मुख्यतः क्रय-विक्रय की पद्धति ही प्रचलित थी। जैन ग्रन्थों में उपलब्ध उल्लेखों से स्पष्ट होता है कि कृषि और उद्योग की उन्नति से देश के उत्पादन में अत्यधिक वृद्धि हुई फलतः देश का व्यापार उन्नत हुआ । विनिमय के प्रमुख अंग व्यापार, परिवहन और सिक्के थे । इनके अभाव में विनिमय सम्भव नहीं था। व्यापार में यातायात के साधन-परिवहन और सिक्कों का महत्त्वपूर्ण योगदान था। इसप्रकार तीनों का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध था ।
१-व्यापार
साधारणतः वस्तुओं का क्रय-विक्रय, व्यापार या वाणिज्य कहा जाता था।' उत्तराध्ययन में वस्तुओं का क्रय करने वाले को “कइयों" (क्रेता) और विक्रय करने वाले को "वणिओ" (वणिक) कहा गया है। निशीथचूणि में विक्रय की जाने वाली वस्तुओं को “पण्य" और "क्रयाणक" कहा गया है।
१. निशीथचूणि भाग ३ गाथा ३२२६ २. "किणंतो कइयो होइ विक्कि गंतो य वणिओ"
उत्तराध्ययन ३५/१४, भगवतीसूत्र ५/६/५ ३. निशीथचूणि भाग ३, गाथा ३८४२