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पंचम अध्याय : १०३
दूसरे स्थान पर भेजा जाता उन्हें “परदेसगामओ" कहा जाता ।' वणिक् जिस स्थान पर वस्तुओं का क्रय-विक्रय करते थे उसे "कोट' कहा जाता था। बिक्री के लिये जहाँ वस्तुओं को एकत्रित किया जाता उसे निशोथर्णि में 'साला' कहा गया है। बाजारों को “विपणि मार्ग" कहा जाता था। औपपातिक से सूचित होता है कि चम्पा नगरी के बाजार व्यापारिक वस्तुओं और व्यापारियों के आवागमन के कारण भरे रहते थे।" कुवलयमालाकहा में उल्लेख है कि विनीता नगरी के विपणिमार्गों में जो व्यापार होता था वह बड़े-बड़े सार्थवाह और वणिक् पुत्रों के लिये पर्याप्त नहीं था इसलिए वे अन्यान्य मण्डियों में जाकर व्यापार करते थे। नगरों के प्रसिद्ध राजमार्गों और चौराहों पर दूकानें होती थीं जहाँ वस्तुओं का विक्रय किया जाता था। बृहत्कल्पभाष्य में उन्हें 'अन्तरायण' कहा गया है। ऐसे बाजार जिनके मध्य में और आगे-पीछे भी दुकानें हों उन्हें आपणगृह कहा जाता था । व्यापार में इतनी विशिष्टता आ गई थी कि अलग-अलग वस्तुओं को अलग-अलग दूकानें और बाजार होते थे। जहाँ चन्दन और दूसरी सुगन्धित वस्तुएँ बेची जाती थी उसे 'गंधियावण' कहा जाता था । बृहत्कल्पभाष्य में एक व्यापारी का उल्लेख आया है जो किसी गंधी की दुकान पर जाकर मदिरा मांगने लगा, गंधी ने कहा उसकी दुकान पर केवल सुगन्धित वस्तुएँ ही मिलती हैं, मदिरा नहीं ।१° आज के सर्राफा बाजार की तरह प्राचीनकाल में भी सोना-चाँदी के अलग बाजार होते थे । जिन दुकानों पर मसल आदि घरेलू उपकरण बेचे जाते थे उन्हें १. अट्ठारसण्ह पगतीण जो महत्तरो सेठ्ठि ।
निशीथचूणि, भाग २, गाथा १७३५ २. सत्थं वाहेति सो सत्थवाहो वही, भाग २, गाथा १७३५ ३. "विक्केयं भंड जत्थ छूढं चिट्ठति' साला गिह
निशीथचूणि २, पृष्ठ ४३३ ४. सूरि उद्योतन-कुवलयमालाकहा, पृष्ठ २६ ५. औपपातिक १/१ ६. सूरि उद्योतन--कुवलयमालाकहा, पृष्ठ ७ ७. बृहत्कल्पभाष्य, भाग ३, गा० २३० ८. वही. ९. गंधियावणे चंदणादियं-निशीथचूर्णि, भाग ३, गाथा ३०४७ १०. बृहत्कल्पभाष्य, भाग २, गाथा १९६५