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पंचम अध्याय : ११३
जो सार्थ धन देने पर भी सवारी की सुविधा प्रदान नहीं करता था वह अच्छा नहीं माना जाता था।' ___जो सार्थ मध्यम गति से आगे बढ़ता हुआ उपयुक्त स्थान गोकूल और बस्तियों में पड़ाव डालता हुआ उचित समय पर विश्राम आदि का प्रबन्ध करता था वह अच्छा माना जाता था क्योंकि ऐसे सार्थ यात्रियों के लिए सुविधाजनक होते ही थे, इसमें भिक्षुओं को भी भिक्षा प्राप्त हो जाती थी। सार्थ यात्रियों की सुविधा के लिये पर्याप्त मात्रा में गेहूँ, गुड़, तिल, घृत आदि खाद्य पदार्थ लेकर चलते थे। इससे आपत्ति और वर्षा ऋतु में भी सबको भोजन मिलने की सम्भावना रहती थी।
ज्ञाताधर्मकथांग से ज्ञात होता है कि सार्थवाह एक कुशल पथ-प्रदर्शक होता था तथा सार्थ को गन्तव्य स्थान पर पहुँचाना अपना कर्तव्य समझता था। निशीथचूर्णि में उल्लेख है कि कभी-कभी घने जंगलों में सार्थ मार्गभ्रमित भी हो जाते थे, ऐसे समय में वे अपने इष्ट देवता का स्मरण करके वनदेवता का आह्वान करके उनमे मार्ग पूछते थे ।" रेतीले मार्गों पर यात्रा प्रायः रात्रि में ही की जाती थी क्योंकि दिन में सूर्य की गर्मी से यात्रा करने में असुविधा होती थी। रेतीले मार्गों पर रात को चाँदतारों को देखकर दिशा का अनुमान किया जाता था।६ जातक कथाओं में भी रात को ही रेतीले मार्गों को पार करने के उल्लेख आये हैं।
१. बृहत्कल्पभाष्य, भाग ३, गाथा ३०६८ २. बृहत्कल्पभाष्य, भाग ३, गाथा ३०७८;
निशीथचूणि, भाग ४, गाथा ५६७२ ३. दंतिक्क-मोर-तेल्ले-गुल-सप्पिएमातिभंडभरितासु । बृहत्कल्पभाष्य, भाग ३, गाथा ३०७२;
__ निशीथचूणि, भाग ४, गाथा ५६६४ ४. ज्ञाताधर्मकथांग १५/१२ ५. "जई तत्थ दिसामूढो हवेज्ज गच्छो सबाल-वुड्ढो उ वणदेवयाये ताहे णियमपगंपं तह करेंति"
बृहत्कल्पभाष्य, भाग ३, गाथा ३१०८;
निशीथचूणि, भाग ४, गाथा ५६६५ ६. निशीथचूणि, भाग ३, गाथा ३१०८ ७. वण्णुपथ जातक, आनन्द कौसल्यायन, जातककथा १/१३८