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१०२ : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन
यद्यपि गाथापति और श्रेष्ठि भी स्थानीय व्यापारी ही थे, किन्तु ये थोक व्यापार करते थे । व्यापार के साथ-साथ ये धन के लेन-देन का व्यवसाय भी करते थे । समाज में सार्थवाह, श्रेष्ठि और गाथापति समृद्ध माने जाते थे और राज्य में इनका सम्मान होता था । उपासकदशांग से ज्ञात होता है कि महावीर का प्रमुख उपासक गाथापति आनन्द समाज में प्रतिष्ठित व्यक्ति था ।' श्रेष्ठ, राज्य में सम्मानित व्यक्ति होता था उसे राजा की ओर से स्वर्ण मुकुट प्रदान किया जाता था और वह १८ श्रेणियों मुखिया भी होता था ।
व्यापारियों का दूसरा वर्ग सार्थवाहों का था जो स्थल और जल मार्गों से भारत के आन्तरिक और विदेशी व्यापार को समृद्ध करते थे । व्यापार के उद्देश्य से एक साथ यात्रा करने वाले व्यापारियों का समूह "सार्थ" कहलाता था और सार्थ का नेतृत्व करने वाला सार्थवाह कहलाता था । ३
पुरुषों के समान स्त्रियाँ भी कुशल व्यावसायिक होती थीं । ज्ञाताधर्मकथांग में द्वारका नगरी की थावच्चा नामक सार्थवाही स्त्री का उल्लेख आता है जो राजकीय व्यवहार और व्यापार में कुशल थी । इसी प्रकार अनुत्तरोपपातिकदशा में उल्लेख है कि काकन्दी नगरी की भद्रा सार्थवाही के पास अपरिमित सम्पदा थी। वह विक्रय योग्य पदार्थों को लेकर विदेश जाती थी। उसने अपने इकलौते पुत्र के लिये बत्तीस भवन निर्मित करवाये थे ।
व्यापारिक संस्थान
व्यापार-स्थल प्रायः हाट या मण्डियाँ ही होती थीं । माल का क्रय और विक्रय सीधे उत्पादनकर्ता और उपभोक्ता के मध्य होता था । निशीथचूर्णि के अनुसार जो वस्तुएँ अपने उत्पत्ति के स्थान पर ही बेची जातीं, उन्हें “सदेसगामओ" कहा जाता था और जिन वस्तुओं को विक्रयार्थ
१. ज्ञाताधर्मकथांग २ / १०; उपासकदशांग १ / १३
२. अट्ठारसह पगतीणं जो महत्तरो सेट्ठि ।
निशीथचूर्ण, भाग २, गाथा १७३५
३. सत्थं वाहेति सो सत्थवाहो - निशीथचूणि, भाग २, गाथा १७३५
४. ज्ञाताधर्मकथांग ५/७
५. अनुत्तरोपपातिकदशा ३/१२/२