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८८ : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन था। उनमें छेद करने के लिये उन्हें सान पर घिसा जाता था ।' आचारांग के अनुसार मणि-मुक्ताओं से भाँति-भाँति के हार निर्मित होते थे। ज्ञाताधर्मकथांग से ज्ञात होता है कि राजगृह का नेद मणिकार बड़ा धनाढ्य था । आवश्यकचूर्णि से ज्ञात होता है कि राजगिरि के एक मणिकार ने मणिरत्न-जटित सुन्दर बैलों की जोड़ी निर्मित की थी।
कल्पसूत्र तथा ज्ञाताधर्मकथांग में प्राप्त स्फटिक की भूमि वाले भवनों के उल्लेख से प्रतीत होता है कि स्फटिक उद्योग भी प्रचलित था। इनके अतिरिक्त ताँबा, पीतल, सीसा, चाँदी, रांगा आदि धातुओं से भी विविध बर्तन निर्मित किये जाते थे ।६ धातुओं से सिक्के भी बनाये जाते थे। सर्वप्रथम ताम्र का उल्लेख करने वाले स्ट्रबो के अनुसार दानपात्र और स्वर्ण रखने के लिये बृहदाकार ताम्र-पात्र निर्मित किये जाते थे। ३–भाण्ड-उद्योग
आगमिक युग में मिट्टी के पात्रों का सर्वाधिक उपयोग होता था। पुरातात्विक उत्खननों में मृत्तिका पात्रों तथा उन पर विविध रंगों की चित्रकारी के जो अनेकशः उद्धरण प्राप्त होते हैं उनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि उस काल में भाण्ड-कला अपने उत्कर्ष पर थी। 'मृण्भाण्ड' बनाने वाले कुम्हार और धातु के बर्तन बनाने वाले कोलालिक कहे जाते थे।' कुम्हार का कर्म-स्थान “कुर्मारशाला" था। भगवान महावीर द्वारा सकडाल कुम्हार की शाला में आश्रय ग्रहण करने का उल्लेख प्राप्त होता
१. घसण मणिमादियाण कट्ठादी-बृहत्कल्पभाष्य, भाग ५ गाथा ४९०५ मणियारा साणीए घसन्ति लगुडेण वेधं काउ-निशीथणि भाग २
गाथा ५०८ २. आचारांग २/२/१/७० ३. ज्ञाताधर्मकथांग १३/२८ ४. आवश्यकचूर्णि, भाग १ पृ. २७२ ५. कल्पसूत्र, सूत्र ३३; ज्ञाताधर्मकथांग १/१८ ६. आचारांग २/६/१/१५२ । ७. पिंडनियुक्ति गाथा ४०५; निशीथचूर्णि, भाग ३ गाथा ४३/६ ८. पुरी, बैजनाथ,-इंडिया ऐज डिस्क्राइब्ड बाई ऐंशियंट ग्रीक राइटर्स
पृ० ११६ ९. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ३/१०; प्रज्ञापना १/१०५