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चतुर्थ अध्याय : ८७
वसुदेवहिण्डो में उल्लेख है कि मथुरावासी अजितसेन ने जिनपाल स्वर्णकार के पुत्र को बुलाकर आभूषण निर्मित करने की आज्ञा दी थी।' इसी प्रकार आवश्यकचूर्णि से भी ज्ञात होता है कि स्वर्णकार किसी राजा के (तहखाने) में बैठकर भी रानियों के आभूषण तैयार करते थे। अन्धकारयुक्त वे भूतल मणि और रत्नों द्वारा प्रकाशित किये जाते थे, ऐसा प्रतीत होता है कि स्वर्णकारों द्वारा स्वर्ण-चोरी की आशंका से राजा भूधरों (तहखानों) में ही आभूषण बनवाते थे। ज्ञाताधर्मकथांग के अनुसार स्वर्णकारों ने उन्नीसवें तीर्थकर मल्लि की अत्यन्त जीवन्त स्वर्णप्रतिमा निर्मित की थी। इसी प्रकार एक बार मल्लिकुमारी का एक दिव्य-कुडल टूट गया। उसके पिता ने स्वर्णकारों को वैसा ही कुडल बनाने का आदेश दिया किन्तु वे सफल नहीं हो सके जिससे ऋद्ध राजा ने उनको अपने देश से निर्वासित कर दिया था। बृहत्कल्पभाष्य तथा निशीथचणि से ज्ञात होता है कि किसी पशुपालक को कहीं से स्वर्ण प्राप्त हुआ जिसे उसने एक स्वर्णकार को स्वर्ण-कुण्डल (मोरंग) बनाने के लिए दिया। स्वर्णकार ने लोभवश ताम्र-निर्मित कुण्डल पर स्वर्ण का पानी चढ़ाकर दे दिया। इसी प्रकार की कटौती-चोरी के कारण ही समाज में स्वर्णकारों को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता था, क्योंकि अवसर पड़ने पर वे बेइमानो करने से नहीं चूकते थे।
रत्नोद्योग
स्थानांग से सूचित होता है कि मणियों को खान से निकालकर शोधित किया जाता था। बृहत्कल्पभाष्य में भी उल्लेख है कि वज्र, माणिक, इन्द्रनील आदि मणियों को काँट-छाँटकर सुन्दर रूप दिया जाता
१. संघदासगणि-वसुदेवहिण्डी भाग २ पृ० २९६ २. आवश्यकचूर्णि, भाग २ पृ० ५८ ३. ज्ञाताधर्मकथांग ८/४१, ८/१०६ ४. लोभेण मोरगाणं भच्चम छज्जेज्ज मा हु ते कन्ना। छादेमि णं तंबेणं
बृहत्कल्पभाष्य भाग ५ गाथा ५२२७ तथा
निशीथचूणि, भाग ३ गाथा ३७०० ५. स्थानांग ९/२२