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९० : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन
मिट्टी के बर्तनों के अतिरिक्त धातुओं के बर्तनों का भी प्रचलन था। लोहे, त्रपु, ताम्र, सीसे, कांसे और सोने-चांदी के बर्तन निर्मित किये जाते थे।' शंख, श्रृग, पत्थर और चर्म से भी बर्तन बनते थे ।२
४-काष्ठ उद्योग
प्राचीनकाल में काष्ठ का बहुत महत्त्व था। वनों से कच्चा माल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होता था। जंगलों से लकड़ो आदि काटने के कार्य को “वणकम्म" की संज्ञा दो जाती थी। प्रातः होते ही रथकार अपनी गाड़ियाँ लेकर जंगलों में लकड़ी काटने हेतु प्रस्थान कर देते थे। कुल्हाड़ी और फरसे की सहायता से वृक्षों को काटा जाता था। लकड़ी को छीलकर, कोरकर, तराशकर तरह-तरह के नमूने बनाये जाते थे । इस कार्य को "कट्टकम्म" ( काष्ठकर्म ) कहा जाता था।" चक्रवर्ती के १४ रत्नों में एक वर्धकी रत्न भी था जो राज्य के लिये भवन, रथ, यान, वाहन आदि का निर्माण करता था । लकड़ी से घरेलू उपकरण जैसे ओखल, मूसल, पीढ़े, रथ, पालको आदि यान तथा कृषि उपकरण हल, जुआ, पाटा आदि बनाये जाते थे। उस समय भवनों में पाषाण के साथ लकड़ी का प्रयोग बहुत अधिक होता था। भवनों के द्वार, गवाक्ष, सोपान, कंगूरे आदि काष्ठनिर्मित ही होते थे। आजकल भी पहाड़ों पर जहाँ लकड़ो का बाहुल्य होता है, घर प्रायः लकड़ी के ही बने होते हैं। देवालयों के लिये काष्ठमूर्तियाँ बनाई जाती थीं। कई बार जलते हुये दीपक से उनमें आग लगने के प्रसंग प्राप्त होते हैं। यवन काष्ठ-कला में बड़े कुशल माने जाते थे ।
१. आचारांग २/६/१/१५२ २. वही ३. बृहत्कल्पभाष्य भाग ३ गाथा २५६० ४. उत्तराध्ययन १९/६६ ५. अनुयोगद्वार ८/११ ६. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति १६/२२ ७. प्रश्नव्याकरण १/२८ .: ८. वही १/१८
९. बहत्कल्पभाष्य भाग ४ गाथा ३४६५