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चतुर्थ अध्याय : ७७ · होकर एक चित्रकार को मृत्युदण्ड दिया तो श्रेणी उसे समुचित न्याय दिलाने हेतु राजसभा में गयी । फलतः राजा ने मृत्युदण्ड के स्थान पर चित्रकार का अंगूठा काटकर उसे राज्य से निर्वासित कर दिया । अपने नियम के अनुरूप कार्य न करने वाली श्रेणी को दण्ड भी मिलता था । ज्ञाताधर्मकथांग के एक प्रसंग से ज्ञात होता है कि मल्लीकुमारी के पिता ने कुण्डल बनाने में असमर्थ सुवर्णकार श्रेणी को निर्वासित कर दण्डित किया था।
उद्योगशालायें
उद्योगों के लिये भूमि का कोई अभाव नहीं था । नगरों और गांवों के बाहर पर्याप्त भूमि थी, जहां शिल्पशालायें अथवा कर्मशालाएं बनायी जाती थीं और वहां शिल्पी अपना कार्य करते थे । बृहत्कल्पभाष्य से इन शालाओं पर प्रकाश पड़ता है । लोहारों की शाला “कर्मारशाला” "समर" और "आयस" कही जाती थी, - तन्तुवाय की शाला "नन्तकशाला " कही जाती थी और स्वर्णकार की शाला " कलाशाला" कही थी। नगर का वातावरण दूषित न हो, इसलिये उद्योगशालायें नगर के बाहर हुआ करती थीं ।" भगवतोसूत्र में उल्लेख है कि महावोर नालन्दा के बाहर तंतुवाय की शाला में ठहरे थे । श्रावस्ती के बाहर हलाहल कुम्भारी की शिल्पशाला में गोशालक ठहरा था ।
औद्योगिक पूँजी
ईसा पूर्व भी उद्योगों के लिए कुछ पूँजी की व्यवस्था आवश्यक होती थी । किन्तु उस समय के उद्योगों में आजकल की तरह बहुत अधिक पूंजी की आवश्यकता नहीं होती थी, अपितु वे लघु और कुटीर :
१. ज्ञाताधर्मकथांग ८।१२९, १३०
२. ते सुवण्णागार निव्विसेए आणानेइ
वही, ८ १०६
३. " जत्थ कम्मविज्जति सा कम्मंतसाला",
निशीथ चूर्णि भाग २, पृष्ठ ४३३. ४. बृहत्कल्प भाष्य, भाग ३ गाथा २९२९; उत्तराध्ययनचूर्णि १।२६ ५. “सद्धालपुत्तस्स पोलासपुरस्स नगरस्स बहिया पंचकुंभकारावणसया "
उपासकदशांग, ७८
६. " रायगिह नगरे नालंदा बहिरिया तंतुवाय साला", भगवतीसूत्र, १५।२२: ७. “कोल्लाग संनिवेसस्स बहिय पणियभूमि" वही, १५४