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९७६ : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन
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३. सुवण्णकारा (स्वर्णकार - सोने का काम करने वाले) ४. सूवकारा (रसोइये )
५. गंधला (गन्धर्व - गायक)
६. कासवगा (नाई)
७. मालाकारा ( माला बनाने वाले)
८. कच्छकारा ( माली )
९. तम्बोलिया (ताम्बूल - पान बेचने वाले ) १०. चम्मरु ( चर्मकार )
११. जंतपीलग ( कोल्हू आदि चलाने वाले ) १२. गंछिय ( अंगोछे बनाने वाले )
१३. छिपाय ( कपड़े छापने वाले )
१४. कंसवारे ( ठठेरे -- बर्तन बनाने वाले ) १५. सीवग (दर्जी)
१६. गुआर - गोपाल ( ग्वाले )
१७. भिल्ला ( व्याध, शिकारी )
१८. धीवर ( मछुआरे ) ।
स्वतन्त्र रूप से व्यवसाय करने की अपेक्षा श्रेणी या संघ में काम करना अच्छा माना जाता था । एक तो श्रेणियां सामाजिक प्रतिष्ठा प्रदान करती थीं, दूसरे सामूहिक रूप से काम करने से लाभ भी सुरक्षित था । इस प्रकार मध्यस्थों द्वारा शोषित होने की आशंका नहीं रहती थी, फलस्वरूप उद्योग के विकास हेतु उचित वातावरण बन जाता था । विशेष राजकीय उत्सवों पर राजा इन श्रेणियों का सम्मान किया करते थे । राजा श्रेणिक ने पुत्रजन्म के अवसर पर १८ श्रेणियों और उपश्रेणियों को आमन्त्रित कर सम्मानित किया था । " रामायण के अनुसार भी राम के प्रस्तावित यौवराज्याभिषेकोत्सव में अमात्य और पौरजनों के साथ निगमों के प्रतिनिधि भी आमन्त्रित थे । ये श्रेणियाँ राजसभाओं पर भी
न्यूनाधिक प्रभाव रखती थीं । श्रेणियों द्वारा निर्मित नियम आगमों के रचनाकाल में राज्य द्वारा भी स्वीकार किये जाते थे । श्रेणियाँ आवश्यकतानुसार न्याय की मांग के लिये राजसभाओं में भी जाती थीं । ज्ञाताधर्मकथांग से ज्ञात होता है कि जब युवराज मल्लीकुमार ने क्रोधित
- १. ज्ञाताघमंत्रथांग १/७०
- २. वाल्मीकि रामायण, २ / १४१४०