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चतुर्थ अध्याय उद्योग-धन्धे
आर्थिक जीवन में उद्योगों का महत्त्व
यद्यपि ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में भी भारत में कृषि प्रधान व्यवसाय थी, परन्तु कुटीर उद्योग भी अत्यन्त विकसित अवस्था में थे । दशवैकालिक चूर्णि में उद्योगों से अर्थोपार्जन करने का उल्लेख है । ' आवश्यकचूर्णि में कहा गया है कि जब भोगयुग के बाद कर्मयुग का आरम्भ हुआ तो ऋषभदेव ने अपनी प्रजा को विभिन्न प्रकार के शिल्प सिखाये । उन्होंने सर्वप्रथम कुम्भकार का कर्म सिखाया । उसके बाद वस्त्र प्रदान करने वाले कल्पवृक्षों के क्षीण होने पर पटकार - कर्म और गृहसुख प्रदान करने वाले कल्पवृक्षों के अभाव में वर्धकी - कर्म (गृह-निर्माण कला ) सिखाया, तत्पश्चात् चित्रकर्म, फिर रोम, नख- वृद्धि होने पर नापितकर्म आदि सिखाये । कल्पसूत्र से ज्ञात होता है कि नगर उद्योगों के केन्द्र थे, राजा सिद्धार्थ के यहाँ नगर शिल्पियों द्वारा निर्मित सुन्दर और बहुमूल्य वस्तुओं का बाहुल्य था । रे प्रश्नव्याकरण में उल्लेख है कि नगरवासी कुशल शिल्पियों द्वारा निर्मित सुन्दर वस्तुओं का उपयोग राजा करते थे । औद्योगिक श्रम
शिल्पकलाओं में निपुणता प्राप्त करने हेतु लोग शिल्पाचार्य के समीप जाते थे । वसुदेवहिण्डो के अनुसार कोक्कास ने शिल्प - शिक्षा यवन देश जाकर ग्रहण की थी । वहाँ के आचार्य से काष्ठकर्म भलीभाँति सीखकर वह ताम्रलिप्ति आया था । कोक्कास बढ़ई की शिल्प कला से १. सिप्पेण अत्यो उवज्जिणिज्जई, - - दशवंकालिक चूर्णि, पृष्ठ १०२ २. “ एवं ता पढ़म कुंभकारा उपपन्ना, इमाणि सिप्पाणि उप्पाएव्वाणि तत्थ पच्छा वत्थ रुक्खा परिहोगा ताएउणतिका उप्पाइया पच्छा गेहागार परिहीणा ताए वड्डति उप्पाइता पच्छा रोमनखाणि वड्डति ताहे कम्मकरा उप्पाइता हावियय एवं सिप्पसयं सिप्पाण उपपत्ति" आवश्यकचूर्ण, १/१५६ ३. कल्पसूत्र ६३
४. प्रश्नव्याकरण ४/४
५. दशवेकालिकसूत्र ९ / १३, १४
६. संघदासगणि-वसुदेव हिण्डी १/६२