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द्वितीय अध्याय : ६३ के दसों श्रमणोपासकों के पास सहस्रों पशु थे जिनमें गोधन प्रमुख था' यद्यपि इस कथन में अत्युक्ति हो सकती है, परन्तु इतना निश्चित है कि पशु रखना सम्पन्नता का सूचक था, गोधन जहाँ समृद्धि का द्योतक था वहीं अधिक से अधिक लोगों को काम देने की दृष्टि से भी इसका महत्त्व था । पशुपालन ग्रामीण क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं था। नगरों में भी उनका आधिक्य था। राजगिरि में रहने वाले गाथापतियों के पास हजारों की संख्या में पशु थे ।
निशीथचर्णि से ज्ञात होता है कि गाय, ऊँट, भैंस, बकरी, घोड़ा, हाथी, खच्चर आदि पालतू पशु थे। पोषित पशुओं से सम्बन्धित विस्तृत ज्ञान हेतु अनेक शास्त्र लिखे गये थे। पुरुषों की ७२ कलाओं में हस्ति, अश्व, गौ आदि के भेद जानना भी सम्मिलित था।
जहां गायें रहती थीं उसे “गोशाल'' अर्थात् गोसाला कहा जाता था । विपाकसूत्र से ज्ञात होता है कि राजाओं की गोशालायें होती थीं, जिनमें गायों की सुरक्षा-संरक्षण के लिये कर्मचारी नियुक्त होते थे। "भीमक टाग्रह' सुनंद राजा के “गोमंडव" ( गोशाला) में नियुक्त था इस गोशाला में नगर के गाय, बैल, छोटी बछिया और सांड़ थे। अनाथ तथा सनाथ सभी प्रकार के पशुओं के भोजन-पानी की व्यवस्था थी।' आवश्यकणि से ज्ञात होता है कि राजा करकंडु को कई गोशालायें थीं जिनमें पशुओं का पालन किया जाता था। वसुदेवहिण्डी से ज्ञात होता है कि वसंतनपुर के राजा जितशत्रु के दो गोमंडल थे, जिसके लिये उसने "चारुनंदी" और "फग्गुनंदी' नामक दो गोपालकों को नियुक्त किया था। राजा के पशु चिह्नित होते थे। एक बार राजा, चारुनंदी द्वारा रक्षित
१. उपासकदशांग १/१२ २/४ । २. “गावो-उट्टो महिसो अय एलग आसतरगा घोडग गद्दभ हत्थी चतुस्पदा
होति दस धा तु" निशीथचूणि भाग २, गाथा १०३४ ३. नन्दीसूत्र ७४ ४. ज्ञाताधर्मकथांग ८५; कल्पसूत्र १/९६ ५. “गोषादि जत्य चिट्ठति सा गोसाला" निशोय चूणि भाग २, पृष्ठ ४३३ ६. विशाकसूत्र २/१९, २०, २१ ३७. आवश्यकचूणि भाग २, पृ० २०७