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६२ : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन
- मातुलिंग, द्राक्ष, अना, खजूर, नारियल, करीर, बेर, आमला, इमली आदि फलों से "पेय" (शरबत) बनाये जाने का उल्लेख है । "
वनों - उपवनों से मधु प्राप्त किया जाता था । आज की भाँति व्यावसायिक स्तर पर तो मधुमक्खी का पालन नहीं किया जाता था, लेकिन विभिन्न जैन ग्रन्थों में उपवनों में वृक्षों पर बने मधुमक्खियों के छत्तों से मधु निकालने के उल्लेख मिलते हैं ।
प्रश्नव्याकरण से ज्ञात होता है कि भीलों से नकद मूल्य पर मधु खरीदा जाता था । मधु का व्यापार करने वाले को पापी कहा जाता था । यद्यपि मधु सेवन पौष्टिक आहार माना जाता था किन्तु जैन ग्रन्थों में मात्र असाध्य रोगों से मुक्ति के लिये मधुसेवन को छोड़कर जैन साधुओं के लिये इसका उपभोग वर्जित था । निशीथचूर्णि में तीन प्रकार के मधु, आम की कोपलों से बने "कैतिय", बड़ी मधुमक्खियों के छत्तों से निकाले गये "मक्खिय" तथा छोटी मधुमक्खियों के छत्तों से निकाले गये भ्रामर का उल्लेख मिलता है ।" पाणिनि ने बड़ी मक्खियों ( डांगरा ) के छत्तों से निकाले गये मधु को भ्रामर एवं छोटी मधुमक्खियों के छत्तों से निकाले गये मधु को "क्षौद्र" कहा है।"
पशुपालन
समाज में दूसरा प्रारम्भिक उद्योग पशुपालन था। आर्थिक संयोजन पशुओं का महत्त्वपूर्व स्थान था । कृषि तथा यातायात मुख्य रूप से पशुओं पर ही आधारित थे । पशुओं को सम्पत्ति के रूप में स्वीकार किया गया था । जिस व्यक्ति या परिवार के पास जितने अधिक पशु होते वह उतना ही अधिक धनवान और सम्पन्न समझा जाता था । उपासकदशांग
१. आचारांग २/१/८/४३
२. प्रश्नव्याकरण १/१२; निशीथचूर्णि भाग २, गाथा १५९३
३. प्रश्नव्याकरण २/१३
४. आचारांग २/१/८/४६
५. कैतिय मक्खिय भ्रामर च" - निशीथचूणि २/१५९३ ६. पाणिनि अष्टाध्यायी ४ / ३ / ११८
७. हयगय गो-मद्दिस उट्ट - खर- अय-गवेलग- एतो परिग्गेहा प्रश्नव्याकरण, ५/१; बृहत्कल्पभाष्य भाग ४, गाथा ४८२८