________________
६६ : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन
आने के लिये और उनको हांकने के लिये झंडी दिखाकर मार्ग-निदेशन करते थे ।' गाय के नवजात वत्स को, जो चलने में समर्थ नहीं होता था, गोपालक स्वयं उठाकर चरागाह तक ले जाते थे और जो वत्स गोपालक की गोद में भी वहाँ जाने के योग्य नहीं होते थे उनका भोज्य घर लाकर खिलाया जाता था । व्यवहारभाष्य से भी ज्ञात होता है कि गोपालक चरागाहों में पशुओं की जंगली जानवरों और सम-विषम स्थानों से रक्षा करते हुए चराते थे । कौटिलीय अर्थशास्त्र से ज्ञात होता है कि गोपालक पशुओं के गले में घंटी बांध देते थे जिससे एक तो पशु कहाँ है इसका पता लग जाता था दूसरे घंटी की आवाज से साँप आदि जीव भाग जाते थे । आवश्यकचूर्ण से ज्ञात होता है कि एकबार एक जंगल में महावोर तपस्यारत थे वहीं पर एक गोपालक अपने पशुओं को भी चरा रहा था । कुछ देर पश्चात् उसके पशु दूर जंगल में पहुँच गये अपने पशुओं को वहाँ न पाकर उसने महावीर से पूछा, महावीर मौन थे गोपालक ने उनको पशु चोर समझ कर उनके कान में कीलें ठोक दीं ।" पशुओं से प्राप्त दूध और तनिर्मित दही तथा घी का व्यापार होता था । आभीर घी - पूर्ण घड़े लेकर नगरों में व्यापार हेतु जाते थे । ६ वसुदेवहिण्डी से ज्ञात होता है कि आभीर के घड़े गाड़ियों में भरकर चम्पा नगरी में व्यापार के लिये ले जाये गये थे। बृहत्कल्पभाष्य में ग्वालों द्वारा सपत्नीक मटकों में घी भरकर विक्रयार्थ नगरों में ले जाने का उल्लेख है । '
जैन ग्रन्थों में यातायात के लिये भी पशुओं का बड़ा महत्त्व बताया गया है । माल और सवारी वहन करने के लिये हाथी, घोड़े, बैल, ऊँट और गधों का प्रयोग किया जाता था । "
१. गोजूहस्स पटागा, सयं पयातस्स पड्ढयति वेगं - बृहत्कल्पभाष्य, भाग 1,
गाथा ५२०२
२.
"जा गोणी ण तरति उट्ठेउं तं गोवो उट्ठवेति अडवि चरणट्ठा णेति, जाण तरति गंतुं गिहे आणे पयच्छति" - निशीथचूर्णि भाग २, गाथा १८९३
३. व्यवहारभाष्य ४ / ३६
४. कौटिलीय अर्थशास्त्र २ / २९ / ४६
५. आवश्यकचूर्णि भाग १, गाथा २७० ६. बृहत्कल्पभाष्य भाग १, गाथा ३६१
७. वसुदेवहिण्डी भाग १, पृ० १३
८. बृहत्कल्पभाष्य भाग १, गाथा ३६१ ९. वही, भाग ३, गाथा ३०६६