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तृतीय अध्याय : ६९
पशुओं से मांस के अतिरिक्त उनका चर्म, अस्थि, मज्जा, नख, शृंग, दंत, पंख, केश और विष की प्राप्ति होती थी। यथा हस्तियों से उनका दांत, सिंह से चर्म और चमरो गाय से नर्म केशों की प्राप्ति होती थी। कुवलयमालाकहा से ज्ञात होता है कि विन्ध्यपर्वत की म्लेच्छ पल्ली में उज्ज्वल चांदी के ढेर सदृश वनहस्तियों के दाँतों का ढेर लगा था । घास की तरह चमरी गायों के बाल बिखरे पड़े थे । मोरपंख के मंडप सजाये गये थे । महिष, बैल, गाय एवं जंगली जानवरों को मारने के कारण वहां की भूमि रक्तरंजित हो रही थी।
भेड़, बकरी और ऊंट के बालों से ऊन तैयार किया जाता था। हाथीदांत के लिये हाथियों का शिकार किया जाता था। इस कार्य के लिये भीलों को अग्रिम धन दिया जाता था । वस्त्र रंगने में पशुओं की मज्जा का प्रयोग किया जाता था। पशुओं के चमड़े का वस्त्र के रूप में भी प्रयोग किया जाता था। जैन साधुओं के लिये पाँच प्रकार के चर्म धारण करने का विधान है। बृहत्कल्पभाष्य में अजिन, भेड़, गो, महिष
और मृगचर्म का उल्लेख हुआ है। सिन्ध देश का चर्मोद्योग प्रसिद्ध था। जिसमें पेसा ( सिन्धुदेश में उत्पन्न विशेष चूहे का चर्म ) उद्रा ( विशेष मत्स्य ) नोलमृग, श्वेतमृग, कृष्णमृग, सिंह और चीते के चर्म विशेष प्रसिद्ध थे। कौटिलीय अर्थशास्त्र में भी हिमालय के बाह्य प्रदेश में पाये जाने वाले सामूर, चीतसी और सामूली चर्म का उल्लेख हुआ है।''
पशुओं से राज्य को प्रभूत आय होती थी।" इसीलिये पशुपालन की १. प्रश्नव्याकरण, १/११ २. दन्ता हस्त्यादीनां चम्मा वग्घादीणं वाला चमरीणं,
निशोथचूर्णि भाग २, गाथा १०३२ ३. सूरि उद्योतन-कुवलयमालाकहा, पृष्ठ ४२ ४. आचारांग २/५/१/१४१ । ५. आवश्यकचूर्णि भाग २, पृ० १७० ६. वही, २/१५४ ७. प्रश्नव्याकरण १/१२ ८. बृहत्कल्पभाष्य भाग ४, गाथा ३८२४ ९. आचारांग २/५/१/१४५ १०. कौटिलीय अर्थशास्त्र २/११/२९ ११. सरि सोमदेव-नीतिवाक्यामृतम्, १९/२३