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तृतीय अध्याय : ७१
कर की थी ।' अहिंसा प्रधान होने के कारण जैन धर्मं पशुओं के साथ भी कोमल व्यवहार पर बल देता था यथा पशुओं को भूखा-प्यासा रखना, उन्हें भरपेट भोजन- चारा न देना, उनकी सामर्थ्य से अधिक कार्य लेना, कृषि के लिये उन्हें बधिया बना देना, पहचान के लिये चिह्नित करने के उद्देश्य से तप्त लोहे से दागना या नाक, कान, पूँछ आदि काट लेना अहिंसाव्रत के अतिचार माने गये हैं । सोमदेव के अनुसार जो व्यक्ति अपने पशुओं की स्वयं देखभाल नहीं करता वह महान् पाप का भागी होता है और उसकी आर्थिक क्षति होती है ।
कुक्कुट पालन
यद्यपि जैन ग्रन्थों में व्यवसाय के रूप में कुक्कुट पालन का कोई संकेत नहीं मिलता, किन्तु यत्र-तत्र पक्षियों के अंडों का उल्लेख है । निशीथचूर्णि से सूचित होता है कि मयूर और कुक्कुट पाले जाते थे किन्तु यह कर्म बड़ा अप्रशस्त और निन्द्य माना गया था ।
विपाकसूत्र में पुरिमताल नामक नगर के अण्डों के व्यापारी निर्णय का वर्णन आया है । अंडों को एकत्रित करने के लिये उसके नौकर प्रतिदिन पुरिमताल नगर के बाहर जंगलों में जाते थे और वहां उलूकी, कपोती, बकी, कुक्कुटी, मयूरी आदि के अण्डों को पकाकर और बांस की पटरियों में भरकर राजमार्ग पर बेचने के लिये जाते थे ।
मत्स्य पालन
जैन सिद्धान्तों के अनुसार मत्स्य पालन जोविका की दृष्टि से न तो प्रशंसनीय था और न ही धार्मिक । विपाकसूत्र में इसप्रकार के व्यवसायों को निम्न कोटि का बताया गया है । प्राचीनकाल में आज की भाँति व्यापारिक स्तर पर कृत्रिम रूप से मत्स्यपालन की तकनीक का प्रचलन नहीं
१. " वग्घो अच्छिरोगेण गहिओ, तस्स वेज्जेण वडियाए अक्खोणि अंजेऊण उणीकताणि" निशीथचूर्ण, भाग २, गाथा ५९८
२. प्रश्नव्याकरण, १/१२, २/११;
उपासकदशांग १/३२; दशवैकालिक ७/२४
३. सोमदेवसूरि- नीतिवाक्यामृतम् ८/८
४. “मयर कुक्कडपोसगा कम्मजुंगिता" निशीथचूर्णि भाग ३, गाथा ३७०८
५. विपाकसूत्र ३ /२०
६. वही, ८/३, ८