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तृतीय अध्याय: ५५ की इसी विधि का उल्लेख किया है ।' औपपातिक से ज्ञात होता है कि चम्पा नगरी में शालि की उपज बहुत अच्छा होती थी ।
गोधूम
छठीं -सातवीं शती में गेहूँ की खेती होती थी । गेहूँ से भाँति-भाँति के पकवान निर्मित होते थे । व्यापारी गेहूँ की गाड़ियाँ भर कर व्यापार के लिये जाते थे । इस उल्लेख से शास्त्रकार का अभिप्राय उत्तरी भारत से रहा होगा जहाँ गेहूँ की खेती बृहद स्तर पर होती थी ।
कोद्रव और रालग
कोद्रव और रालग निम्नकोटि का धान्य माना जाता था । निर्धनों के भोजन में कोद्रव और रालग की बहुतायत थी। कुछ गाँवों में मात्र कोद्रव और राग की ही खेती होती थी । वहाँ भिक्षुओं को भिक्षा में कोद्रव और रालग ही प्राप्त होता था । निशीथणि ते ज्ञात होता है कि एक निर्धन स्त्री के घर में कोद्रव का ही भोजन था । अपने घर आये भाई के लिये वह कहीं से शालि का ओदन मांग कर लाई थी । ५
दालें
प्रतिदिन के भोजन में दालों का मुख्य स्थान था। मूंग, माष, मसूर, अरहर, चना, मटर, कुलत्थ आदि दालों के उल्लेख आये हैं । इससे प्रतीत होता है कि दालों को पर्याप्त मात्रा में खेतो होतो थी ।
इक्षु
गन्ने की खेती बृहद स्तर पर होती थी । औपपातिकसूत्र में उल्लेख है कि चम्पा नगरी के खेतों में ईख की भी खेती होती थी । अष्टाध्यायी में भी गन्ने की नियमित खेती होने के उल्लेख आये हैं ।" गन्ने के लिये
१. पुरी बैजनाथ, इण्डिया एज डिस्क्राइब्ड बाई अर्ली ग्रीक राइटर्स, पृष्ठ १००
२. औपपातिक सूत्र, १ .
३. निशीथचूर्णि भाग ४, गाथा ५७७४
४. पिंड नियुक्ति गाथा १६२
५. निशीथचूर्णि भाग ३, गाथा ४९५
६. आचारांग २।१०।८, निशीथचूर्णि भाग २, गाथा १०२९, १०३०
७. औपपातिक सूत्र, १.
८. पाणिनि अष्टाध्यायी ८/४/५