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तृतीय अध्याय : ५७
कोड़े और चूहे भी फसल को अत्यधिक हानि पहुँचाते थे । हिमपात और ओलों से भी फसल नष्ट हो जाती थी । प्राकृतिक विपदाओं से बचाने के लिये लोग अन्नको भण्डारों में सुरक्षित रखते थे । २
आर्थिक जीवन में ग्रामों का महत्त्व एवं व्यवस्था
आगमों के रचनाकाल में भी भारतीयों का आर्थिक जीवन कृषि प्रधान ही था । अधिकांश लोग ग्रामों में ही निवास करते थे और नगरों में निवास करने वाले भी किसी न किसी रूप में ग्रामों से जुड़े रहते थे । गांवों में गाय, भैंस पालने वाले भी बड़ी संख्या में रहते थे । बृहत्कल्प भाष्य में ऐसे गांवों को “घोष" कहा गया है । ३ कुछ गाँव जंगल या पहाड़ी के ऊपर बनाये जाते थे और वहाँ पर कृषक अपना अनाज एकत्र करके रखते थे, ऐसे गाँवों को "सम्बाध " या "संवाह" कहा गया था। कुछ गाँवों के चारों ओर मिट्टी की प्राचीर बनाई जाती थी ऐसे गाँवों को (खेट) कहा जाता था ।" सुरक्षा और सुविधा के लिये कुछ गाँवों के मध्य में एक केन्द्रीय गाँव बनाया जाता था जो नगर से छोटा और साधारण गाँव से बड़ा होता था । इसके चारों ओर मिट्टी का परकोटा बना होता था । ऐसे गाँव को " खर्वट" कहा जाता था । कौटिल्य ने २०० गाँवों के बीच एक 'खर्वट' बनाने के लिये कहा है । गाँवों में रहने वालों की सब सुविधाओं का ध्यान रखा जाता था और गाँव प्रायः आत्मनिर्भर होते थे । - बृहत्कल्पभाष्य में आदर्श गाँव की विशेषता बताई गई है - जहाँ पानी के • लिये कुँआ हो, खेत समीप हो, पशुओं के लिये चरागाह हो, वन-प्रदेश निकट हो, बच्चों के खेलने के लिये मैदान हो और दासियों के घूमने के लिये स्थान हो ।' प्रत्येक गाँव की अपनी सीमा होती थी । नदी, 1 पहाड़,
१. कौटिलीय अर्थशास्त्र ४ / ३७८; मिलिन्द प्रश्न, पृष्ठ ३५९
२. व्यवहारभाष्य भाग ६, पृ० १६३ - १६७
३. बृहत्कल्प भाष्य भाग २, गाथा १०९२
४. वही " खेडं
५.
पुण होइ धूलिपागारं "
६. वही, भाग २, गाथा १०८९
७. कौटिलीय अर्थशास्त्र २/१/१९
८. परसीमं पि वयंति हु, सुद्धतरो भणति जा ससीमा तु । उज्जाण अवत्ता वा उक्कीलंता उ सुद्धयरो
बृहत्कल्पभाष्य भाग २, गाथा १०९८
वही भाग २, गाथा १०८९