________________
द्वितीय अध्याय : २७. घ्यायो में पूंजी को 'वस्न' कहा गया है। जो व्यापारी स्वयं क्रय-विक्रय न करके केवल अपनी पूंजो लगाकर लाभ प्राप्त करते थे उन्हें वस्निक कहा गया है।
बचत
उत्पादन के लिए पूजी के महत्त्व को पहचाना गया था। सोमदेव के अनुसार द्रव्य से ही द्रव्य का उपार्जन होता है । पूजी के माध्यम से अधिक धन का उपार्जन किया जा सकता है। पूँजी के महत्त्व को स्वीकारते हुए जैनग्रन्थों में तीन प्रकार से पूँजी प्राप्त करने के उल्लेख आये हैं
(१) कृषि अथवा व्यापार द्वारा नवीन धन की प्राप्ति, (२) बचत द्वारा एकत्रित की हुई पूजो,
(३) पैतृक धन जिसे पिता-पितामह छोड़ गये हों। मनुस्मृति में भी पूर्वजों की सम्पत्ति, व्यापार से अजित सम्पत्ति, जीत कर प्राप्त की हुई, व्याज द्वारा अजित को हुई, कृषि और दान द्वारा प्राप्त की हुई सम्पत्ति को धर्ममान्य कहा गया है। ___ सोमदेवसूरि मनुष्य को अपनी आय का चौथाई भाग पूंजी वृद्धि हेतु निर्धारित करने, चौथाई व्यापार हेतु, चौथाई उपभोग के लिए और चौथाई भाग अपने आश्रितों के भरण-पोषण में व्यय करने का परामर्श देते हैं।' नीतिवाक्यामृत में मनुष्य को नियमित रूप से कुछ धन जमा करते रहने की सलाह दी गई है। संचित राशि कुछ समय पश्चात् एक बृहद् राशि के रूप में एकत्रित हो जाती है। अपने पिता-पितामह द्वारा अजित धन में वृद्धि करने वाला पुरुष उत्तम माना जाता था, इसमें ह्रास करने वाला मध्यम माना जाता था और जो उपभोग में ही
१. पाणिनि अष्टाध्यायी, ५/१/१५६. २. अर्थनार्थोपार्जनम् सूरि सोमदेव, नीतिवाक्यामृत, २९/९७ ३. वही, २९/१०५. ४. मनुस्मृति, १०।११५. ५. पादमाया नीवि कृपांत्पादं वित्ताय कल्पयते धर्मापभोगयो पादं पादं भर्तव्य
पोषणैः-सोमदेव रि, यशस्तिलकचम्पू, ७/१०४ । ६. कालेन संचयिमानः परमाणुरपि जायते मेरुः-नीतिवाक्यामृत, १/३१ ।