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तृतीय अध्याय : ३५ १. असिकर्म : अस्त्र-शस्त्र द्वारा जीविकोपार्जन असिकर्म कहा
जाता था। २. मसिकर्म : प्रशासन के क्षेत्र में लेखक या गणक का काम करके
जीविकोपार्जन मसिकर्म कहा जाता था। ३. कृषिकर्म : भूमि जोतना, बोना, सिंचाई करना, फसल काटना और
धान्य का संग्रह कर जीविकोपार्जन करना कृषिकर्म कहलाता था। ४. विद्या : अध्ययन एवं पठन-पाठन भी जीविकोपार्जन का साधन था। ५. वाणिज्य : वस्तुओं का क्रय-विक्रय कर आजीविकोपार्जन करना
व्यापार कहा जाता था। ६. शिल्प : विविध शिल्प भी जीविकोपार्जन के साधन बताये गये हैं ।
मनुष्य की उपार्जन पद्धति उसकी वृत्ति को बहुत अधिक प्रभावित करती है। इसलिए इस बात का ध्यान रखा जाता था कि मनुष्य की उत्पादन पद्धति ऐसी हो जिससे मनुष्य की मनुष्यता का विकास हो । अनेक व्यवसाय आर्थिक दृष्टि से लाभदायक होने पर भी नैतिक दृष्टि से हेय होने के कारण त्याज्य थे। उपासकदशांगसूत्र और आवश्यकचूर्णि में इस प्रकार के १५ वर्जित व्यवसायों का उल्लेख है :१. इंगालकम्मे (अंगार कर्म) लकड़ी के कोयले बनाना; कुछ टीकाकारों
ने ईट पकाने आदि भट्टियों से सम्बन्धित व्यवसायों को भी इसमें सम्मिलित किया है। किन्तु यह उचित नहीं प्रतीत होता है क्योंकि महावीर का प्रमुख श्रावक सकडालपुत्र ऐसा व्यवसाय करता था । कुछ अन्य टीकाकार इसका अर्थ वनों में आग लगाकर कृषि-भूमि प्राप्त करना, करते हैं। यह अर्थ उचित प्रतीत होता है क्योंकि ऐसा करने में वानस्पतिक जीवों के अतिरिक्त अन्य प्राणियों की भी हिंसा
होती है। २. वणकम्मे (वनकर्म)-जंगल काटने का व्यवसाय, आचार्य हेमचन्द्र ने
योगशास्त्र में बगीचे लगाकर शाक-सब्जी के व्यवसाय को भी इसमें सम्मिलित किया है ।
१. उपासकदशांग १/३८; आवश्यकचूणि, भाग २ पृ० २९६. २. द्रष्टव्य-उपासकदशांग पर अभयदेव की वृत्ति १/४७. ३. हेमचन्द्र--योगशास्त्र ३/१०२.