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द्वितीय अध्याय : ३३
प्राप्त न कर सका ।' सारांश यह है कि व्यापारिक सूझबूझ से अधिक धन की प्राप्ति की जा सकती है। यद्यपि उद्योग और व्यापार आज को भाँति विकसित नहीं थे । प्रायः प्रबन्धकर्ता वही व्यक्ति होता था जिसकी अपनी भूमि और अपनी पूँजी होती थी और उसके स्वयं के श्रम से ही उत्पादन होता था । ऐसी स्थिति में लाभ-हानि का उत्तरदायी भी वह स्वयं ही होता था । किन्तु उपासकदशांग में कुछ ऐसे उल्लेख आये हैं जिनमें प्रवन्धक का महत्त्व स्पष्ट होता है । आनन्दगाथापति की विस्तृत कृषि और लेन-देन तथा सक डालपुत्र के विस्तृत भाण्ड उद्योग के लिये कुशल प्रबन्धक का विशेष महत्त्व था। कुछ व्यक्ति अपने किसी सामान्य उद्देश्य की पूर्ति के लिए कुछ निश्चित नियमों के अन्तर्गत अधिकतम लाभ हेतु संयुक्त रूप से व्यापार करते थे। संयुक्त रूप से काम करने वालों के मध्य एक अनुबन्ध होता था, जिसमें व्यापारिक प्रबन्ध के सामान्य सिद्धान्तों को स्पष्ट किया जाता था । प्रत्येक सदस्य सम्मिलित कोश में अपना-अपना अंश प्रदान करता था और अन्ततः पूंजी के अनुपात में उनके मध्य लाभ-वितरण कर दिया जाता था।
निशीथचूर्णि में पाँच वणिकों का कथानक आता है, जिन्होंने समान पूंजी लगाकर व्यापार आरम्भ किया था, बाद में अलग होते समय उन्होंने पूर्व निवेशित अंश के अनुसार ही आपस में धन विभक्त कर लिया था।
वसुदेवहिण्डी से ज्ञात होता है कि कंचणपुर के दो व्यापारी रत्न खरीदने के लिए समान मात्रा में धन लेकर सिंहद्वीप गये थे। जातक कथाओं में भी ऐसे व्यापारियों का वर्णन मिलता है जो सम्मिलित व्यापार करते थे ।" अधिक लाभ के लिए व्यापारी परस्पर संयुक्त हो जाया करते थे, जिससे वे एक दूसरे के अनुभवों का लाभ उठा सकें। इस प्रकार के प्रबन्ध का अधिकाधिक लाभ उठाने का प्रयत्न करते रहते थे।
१. राजप्रश्नीय, सूत्र ७४ २. उपासकदशांग, १/२८, ७/६. ३. पंचवणिया समभाग समाइत्ता ववहरंति सव्वम्मि विभत्ते खरा विभयामो त्ति ।
-निशीथचूणि, भाग ४, गा० ६४०४, ४. वसुदेव हिण्डी, भाग १ पृ० १११ (कंचणपुर उड़ीसा का एक प्रमुख नगर था). ५. कूटवणिक जातक, जातक कथा--आनन्द कौसल्यायन, भाग २ पृ० ५२९.