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द्वितीय अध्याय : ३१
प्रबन्ध उत्पादन में प्रबन्धक का महत्त्व
उत्पादन का चौथा साधन प्रबन्ध है । प्रबन्ध का अर्थ है उत्पत्ति के विभिन्न साधन-भूमि, श्रम और पूंजी का उचित समन्वय कर अल्पतम व्यय में अधिकतम उत्पादन करके लाभ अर्जित करना। विभिन्न साधनों में समन्वय स्थापित कर व्यापार और उद्योग की नीतियाँ निर्धारित करना और उनको कार्यान्वित करके पर्याप्त लाभ प्राप्त करना ही प्रबन्धकर्ता का मुख्य उद्देश्य होता है।
आर्थिक विकास की प्रारम्भिक अवस्था में उत्पादन के लिए प्रबन्धक की आवश्यकता होती है। कार्य की सुव्यवस्थित योजना बनाना, पर्याप्त मात्रा में उत्पत्ति के साधन जुटाना, उत्पत्ति की मात्रा निर्धारित करना, 'निर्मित वस्तु की विक्रय-व्यवस्था करना, अनुसंधान द्वारा उत्पत्ति के तथा सस्ते पदार्थों की खोज करना उसका दायित्व था । प्रबन्ध प्रस्तुतकर्ता
सार्थवाह, श्रेष्ठि, गाथापति, निगम और श्रेणियाँ प्रबन्ध प्रस्तुत करती थीं। उचित प्रबन्ध के बिना व्यापार और उद्योग उन्नति नहीं कर सकते। व्यवहारभाष्य में दो भाइयों की कथा आती है जिन्होंने धन का समान विभाजन किया था । एक ने अपनी सूझबूझ, बुद्धिमत्ता और अच्छे प्रबन्ध से प्रभूत धन अजित किया, इसके विपरीत व्यापारिक सूझबूझ के अभाव में और पूर्णतया नौकरों पर निर्भर होने के कारण दूसरे का सारा व्यापार नष्ट हो गया ।' आचारांग में कहा गया है कि अच्छा व्यापारी लाभ की आकांक्षा रखता हुआ वाणिज्य में साहस करने को तैयार रहता था। एक कुशल व्यापारी अपनी दूरदर्शिता और सूझबूझ से इस बात का निर्णय करता था कि किस वस्तु का क्रय किया जाय और किसका विक्रय किया जाय, किसका संग्रह किया जाये, जिससे भविष्य में प्रचुर लाभ हो । वे नई-नई मंडियाँ ढूँढ़ते ? जहाँ उनके माल की खपत हो । व्यापारी लाभ और हानि को अच्छी तरह जानते १ व्यवहारभाष्य, ४/५३. २. आचारांग, १/२/१।६७ ( अकडं करिस्सामिति ). ३. लाभात्यिगो परदेसं अगतुंकागस्स वरस से लाभो भविस्सिति त्ति गमणं
करोति इमं दव्वं कीणहि इमं विक्किणीहि, कम्मारंभवो सण्णिताहि इमम्मिकमारमे पयट्टसु एवं ते लाभ । भविस्सति-निशीथचूणि, ३/२६९१, ४३६२