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३६ : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन
३. भाडीकम्मे : (भाटकर्म) : पशुओं को किराये पर देना ।
४. साडी कम्मे (शकटकर्म ) - यानों, वाहनों का निर्माण | कुछ आचार्य इसका अर्थं वस्तुओं को सड़ाकर उनसे मादक पेय बनाना, करते हैं । ५. फोडी कम्मे (स्फोटकर्म ) - ) — खान खोदने और पत्थर तोड़ने का कार्य | ६. दंतवाणिज्जे (दंत वाणिज्य ) - हाथी दाँत का उद्योग । उपलक्षण से
चमड़े और हड्डी के व्यवसाय को भी इसमें सम्मिलित किया गया है ।'
७. लखवाणिज्जे (लाख वाणिज्य) : लाख उद्योग ।
८. केस वाणिज्जे (केश वाणिज्य ) - चमरी गाय, भेड़ आदि के बालों का उद्योग ।
९. रस- वाणिज्जे ( रस वाणिज्य ) - मद्य का निर्माण ।
१०. विस वाणिज्जे (विष वाणिज्य ) – विष निर्माण ।
११. जंतपीलणकम्मे ( यंत्रपीड़न कर्म ) - घाणि ( कोल्हुओं ) आदि का
व्यवसाय |
१२. निलंछणकम्मे (नपुंसककर्म ) - बैल आदि को बधिया बनाना । १३. दावाग्गिदावणया ( दावाग्नि दावण ) -- जंगल में आग लगाना । १४. सरदहतलागपरिसोसणया ( सर, हृद, तड़ाग परिशोषण. ) --सरोवर एवं तालाब आदि को सुखाना ।
१५. असईजनपोसणाय : (दुराचारी लोगों का पोषण ) -- व्यभिचार आदि के लिए वेश्यालय चलाना ।
जैन धर्म में अहिंसा की प्रधानता होने से उपरोक्त व्यवसाय वर्जित थे, क्योंकि इनमें किसी न किसी प्रकार से हिंसा होती थी । वे ही व्यवसाय उत्तम माने जाते थे जो हिंसा और शोषण से रहित, मनुष्य के परिश्रम पर आधारित हों ।
जैनाचार्य उद्योतनसूरि ने कुवलयमालाकहा में धनार्जन के प्रशस्त एवं अप्रशस्त साधनों का उल्लेख किया है । इनमें देशान्तर यात्रा, साझीदार बनाना, राजा की सेवा, धातुवाद, सुवर्णसिद्धि, मंत्र साधना, देव-आराधना, समुद्र पार करना, पर्वतारोहण, पर्वत खनन करना, व्यवसाय करना आदि धनार्जन के प्रशस्त उपाय माने गये हैं । धनार्जन के इन प्रशस्त साधनों के अतिरिक्त कुछ अप्रशस्त साधन भी थे, जो समाज
१. आवश्यकचूर्णि भाग २ पृ० २९६.