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३२ : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन
हुए साहस करने को तैयार रहते और सदा वही कार्य करने का प्रयत्न करते जिनसे उनको प्रचुर लाभ हो ।' उत्तम व्यापारी शुल्क, यात्रा कर, कर्मकरों का पारिश्रमिक आदि देकर यदि लाभ देखते तभी वे उस व्यापार की चेष्टा करते और यदि लाभ की आशा न होती तो उस वस्तु में व्यापार नहीं करते । कौटिल्य के अनुसार भी व्यापारी अपने पण्यद्रव्यों का मल्य, शुल्क, वर्तनी देय ( सड़क कर ) गुल्मदेय, ( अन्य पुलिस का देय था ), भाटक ( वाहन का किराया ), भक्त ( भोजन ), तरदेय ( घाटकर ) आदि कर देकर जो लाभ बचता है उसका सोच विचार कर जिस मार्ग से उन्हें पर्याप्त लाभ हो उसी मार्ग का अनुसरण करते थे। व्यापारी अपने मलधन की सुरक्षा करते और हानि की आशंका वाले द्रव्य को नहीं खरीदते । राजप्रश्नीयसूत्र में ऐसे व्यापारियों की कथा है जिन्होंने अपनी सूझबूझ से प्रचुर धन अजित किया था और एक मूर्ख का भी वृत्तान्त है जिस ने अपनी मुर्खता से पूर्व संचित धन को खो दिया था। एक बार कुछ व्यापारियों ने पर्याप्त मात्रा में वस्तु लेकर धन प्राप्ति हेतु प्रस्थान किया। मार्ग में एक विशाल जंगल में उन्होंने लोहे की खाने देखीं सबने लौह ग्रहण किया और आगे बढ़े कुछ दूर चलने पर उन्होंने त्रपु ( राँगा ) की खाने देखीं। राँगा कि लोहे से अधिक मूल्यवान था, अतः उन्होंने लौह को छोड़ दिया और रागे को ही ले लिया लेकिन एक मूर्ख व्यापारी ने यह कह कर रांगा छोड़ दिया कि उसे जो पहले मिला है वह उसी से सन्तुष्ट है । ज्यों-ज्यों वे आगे बढ़ते गये क्रमशः ताम्र, रूप्य, सुवर्ण और रत्न की खानें मिलीं । बुद्धिमान् व्यापारी अल्प मूल्य वाली वस्तुओं का त्याग कर मूल्यवान वस्तु लेकर आगे बढ़ते गये फिर अपने-अपने जनपद में पहुँचकर उन्होंने उन मूल्यवान वस्तुओं का विक्रय कर बहुत धन प्राप्त किया । लेकिन वह व्यापारी जो केवल लोहा ही लाया था अधिक धन
१. बृहत्कल्पभाष्य, ४/४३५०. २. जहा वणितो देसंतर भंडं णेडकामो जइ सुकंसद्धो आदिसद्धातो, भांडगकम्भ
करवितीए परिसुद्धाए जति लाभस्स सती तो वणितो वाणेज्ज चेद्धं आरभति,
अहलाभो न भवति तो न आरभति-निशीथचूणि ३/४८११. ३. कौटिलीय अर्थशास्त्र, २/१६/२२ ( अधि. ). ४. जहां लाभत्थी वणिओ मूलं जेण तुट्टति तारिसं पण्णं णो किणाति जत्थ लाभं पेच्छति तं किणाति ।
-निशीथचूर्णि, ३/३५३२.