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२० : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन का अभाव नहीं था। व्यवहारभाष्य में उल्लेख है कि दास जीवनपर्यन्त स्वामी के पास रहकर उसकी सेवा करते थे । भृत्य धन लेकर अस्थायी • काल के लिये काम करते थे। निशोथणि से ज्ञात होता है कि कर्मकर दीर्घकाल के लिये अनुबन्धित होकर अपने स्वामी के खेतों में हल चलाते, बीज बोते और खेतों को रक्षा करते थे। प्रश्नव्याकरण में बताया गया है कि संदेशवाहक दूसरे गांव में संदेश पहुँचाते और वहाँ से सन्देश लाते थे, भागीदार बटाई पर खेती करते थे ।
प्राचीन भारत में मनुष्य प्रायः शारीरिक श्रम पर ही निर्भर करता था जैसा कि निशीथचूणि में बताया गया है कि कृषि और कुटीर उद्योग शारीरिक श्रम पर ही आधारित थे। श्रमिक और कर्मकर किसो विशेष व्यवसाय की दक्षता नहीं रखते थे बल्कि वे शारीरिक श्रम करके जीविकोपार्जन करते थे। वसुदेवहिण्डो में उल्लेख है कि अकुशल श्रमिक सारा दिन परिश्रम करके कुछ 'कहापन' ही अजित कर पाता है जबकि कुशल श्रमिक बुद्धिबल से कम परिश्रम करके भी अधिक धन अर्जित करता है।" पाणिनि ने भी किसी प्रकार का शिल्प विशेष न जानने वाले मात्र शारीरिक श्रम करने वाले साधारण अकुशल श्रमिक को कर्मकर और उसके पारिश्रमिक को भृत्ति तथा शिल्प जानने वालों को शिल्पी या कारि और उनकी भृत्ति को वेतन कहा है। __आधुनिक अर्थशास्त्र की परिभाषा में मजदूर आदि साधारण श्रमिक को "अकुशल श्रमिक' और दूसरे शिल्प जानने वालों को कुशल श्रमिक कहा जाता है। इनके अतिरिक्त कुछ अधिकारी, आचार्य, अध्यक्ष, वैद्य आदि भी थे जिनको गणना न तो शिल्पियों में की जाती थी और न श्रमिकों में। ये अपनी सेवाओं के बदले वेतन पाते थे । इनकी सेवाओं से यद्यपि प्रत्यक्ष रूप से कोई उत्पत्ति नहीं होती थी परन्तु परोक्ष रूप से देखा जाये तो उनको सेवाओं से राज्य को कुछ न कुछ लाभ अवश्य होता था। १. व्यवहारभाष्य ९/३. • २. निशीथचूणि, ३/४८४८. ३. प्रश्नव्याकरण १०/३ : व्यवहारभाष्य, ६/१६३, १६४. ४. निशीथचूणि, २/५२२ ५. वसुदेवहिण्डी, २/२६४ ६. पाणिनि अष्टाध्यायी, १/२/२२, ३/१/२६.