________________
पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
उक्त दोनों आचार्यों के मध्य में हेमचन्द्रसूरि जहाँ श्वेताम्बरपरम्परा का प्रतिनिधित्व करते हैं, वहाँ आ०शुभचन्द्र दिगम्बरपरम्परा के हैं। इन दोनों आचार्यों के ग्रन्थों का अध्ययन किये बिना जैनयोग-साधना का निरूपण एकांगी रहेगा । समग्र रूप से विचार किया जाये तो हरिभद्रसूरि शुभचन्द्राचार्य, हेमचन्द्रसूरि एवं उपा० यशोविजय ये चार आचार्य जैनयोग-साधना रूपी भवन के आधारस्तम्भ हैं। अन्य आचार्य इन्हीं चारों का किसी न किसी अंश में अनुगमन करते प्रतीत होते हैं। अनेक आचार्य इन्हीं चार आचार्यों द्वारा उपस्थापित विचारधारा के ऋणी हैं। जैनयोग-साधना के संबंध में जो भी मौलिक व स्वतंत्र ग्रंथ लिखे गये हैं, वे जैनयोग-साधना के सब पक्षों को आंशिक रूप से ही स्पर्श करते हैं। जितने व्यापक व सर्वांगीण दृष्टिकोण से उक्त चार आचार्यों ने निरूपण किया है, वैसा अन्य किसी आचार्य ने नहीं। संक्षेप में, उक्त चार आचार्यों ने जो कुछ भी कहा है उससे कोई नवीन बात अन्य आचार्य ने नहीं कही। इन सब दृष्टियों से प्रस्तुत प्रबन्ध के लिए उक्त आचार्यों का चयन उचित व संगत है। इन चार आचार्यों द्वारा प्रतिपादित योग-साधना के स्वरूप का विवेचन करने से पूर्व यह उचित होगा कि इनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर संक्षेप में प्रकाश डाला जाये ।
६. प्रमुख जैनाचार्यों का व्यक्तित्व एवं कृतित्व
14
अ. हरिभद्रसूरि
T
हरिभद्रसूरि श्वेताम्बर जैन-सम्प्रदाय के लब्धकीर्ति पुरुष हैं । सम्प्रदाय में इस नाम के अनेक आचार्यों का उल्लेख मिलता है।' परन्तु योग-विषयक ग्रंथों के रचयिता के रूप में इन्हीं का नाम सर्वश्रुत है ।
भद्रसूरि ने अपने ग्रंथों में अपने समय व जीवनवृत्त का स्पष्ट उल्लेख कहीं नहीं किया है। उनके ग्रंथों में प्राप्त कुछ संकेतों तथा उनके समकालीन' व परवर्ती लेखकों के आधार पर उनके समय एवं जीवनवृत्त विषयक जानकारी मिलती है।
उनके अपने ग्रन्थों में दिये गये संकेतों के आधार पर, उनकी पूर्वावधि व उत्तरावधि का निर्णय करना यहाँ संगत होगा। हरिभद्रसूरि के समय-संबंधी विवादास्पद प्रश्न पर मुनि जिनविजय, मुनि कल्याणविजय, प्रो० हर्मन जैकोबी और प्रो० के० वी० अभ्यंकर ने अपने लेखों द्वारा विविध मत व्यक्त किये हैं। हरिभद्रसूरि के समय से संबंधित निम्नलिखित मान्यताएँ प्रचलित हैं
1
१.
छठी शती वि० सं०
२.
६-१० वीं शती वि० सं०
३.
८-६ वी शती ई०
४. ई०८ वीं शती
१.
२.
३.
-
४.
(परम्परागत मान्यता)
(प्रो० अभ्यंकर तथा हर्मन जैकोबी)
(पं० महेन्द्रकुमार तथा डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री ) ( मुनि जिनविजय )
जैनसाहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, पृ० ८८२
द्रष्टव्य : हरिभद्रसूरि कृत ग्रंथों के अन्तिम प्रशस्ति पद्य
(क) कहावली, भद्रेश्वर, (अमुद्रित) वि० सं० १४६७ में लिखित, संघवी पाड़ा पाटन में प्राप्त ताडपत्रीय पोथी, खण्ड २. पत्र
सं० ३००
(ख) कुवलयमाला, उद्योतनसूरि, सिंघी जैन शास्त्र विद्यापीठ, बम्बई, १६५६
(क) उपदेशपद, हरिभद्रसूरि, टीका, मुनिचन्द्र वि० सं० ११७४, की प्रशस्ति ।
(ख) गणधरसार्धशतक, जिनदत्त, वि० सं० ११६६-१२११
Jain Education International
(ग) प्रभावकचरित्र, चन्द्रप्रभसूरि, श्रृंग ६
(घ) प्रबन्धकोष या चतुर्विंशतिप्रबंध, राजशेखर, श्री फार्बस गुजराती सभा, बम्बई, १६३२, पृ० ४६-५४
(ङ) गणधरसार्धशतक बृहद टीका सुमतिगणिन्, वि० स० १६६५
(च) पुरातनप्रबंधसंग्रह, सिंघी जैन ग्रन्थमाला, कलकत्ता, १६३६. पृ० ४२-४३
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org