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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
है - शुभ भावों में प्रवृत्ति । शुभभावों में प्रवृत्ति का अर्थ है • अशुभ भावों से निवृत्ति । इसीलिए मन आदि के कुशल भावों के प्रवर्तन एवं अकुशल भावों के निवर्तन को 'गुप्ति' कहा गया है।' सर्वार्थसिद्धि में लिखा है कि जिसके बल से संसार के कारणों से आत्मा का गोपन अर्थात् रक्षा होती है, वह 'गुप्ति' है ।' राग-द्वेषादि कषाय संसार के मूल कारण हैं। इसलिए इनसे आत्मा की रक्षा करने के लिए आ० शुभचन्द्र एवं हेमचन्द्र प्रभृति विद्वानों ने मन, वचन और काय की अशुभ प्रवृत्तियों के निग्रह (निरोध) को गुप्ति कहा है ।
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किसी भी प्रकार की प्रवृत्ति मन, वचन एवं काय द्वारा संभव होने से गुप्ति के भी तीन भेद किये गए हैं- मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति ।
२. समिति
जहाँ गुप्तियों के द्वारा साधना के निषेधात्मक पक्ष को प्रस्तुत किया गया है, वहाँ समितियाँ साधना के विधेयात्मक पक्ष को प्रस्तुत करती हैं। समितियाँ साधु में दृढ़ता और चारित्रिक विकास लाने के लिए महाव्रतों की रक्षा करती हैं, इसलिए साधुओं के लिए आवश्यक रूप से पालनीय हैं। 'समिति' का अर्थ है - सम्यक् प्रवृत्ति । पाप से बचने के लिए मन की प्रशस्त एकाग्रता 'समिति' कहलाती है। अभयदेवसूरि के अनुसार एक निष्ठा के साथ की जाने वाली शुभ प्रवृत्तियाँ 'समिति' कहलाती हैं। आ० हेमचन्द्र के शब्दों में पांच प्रकार की चेष्टाओं की तांत्रिक संज्ञा अथवा अर्हत्प्रवचनानुसार की जाने वाली प्रशस्त चेष्टा 'समिति' है।
समितियों के प्रकार
पांच प्रकार की चेष्टाओं से सम्बद्ध होने से समितियाँ भी पांच प्रकार की मानी गई हैं १. ईर्यासमिति, २. भाषासमिति, ३. एषणासमिति, ४. आदाननिक्षेपसमिति और ५. उत्सर्ग या व्युत्सर्गसमिति । इनका विवरण इस प्रकार है
१.
ईर्यासमिति
भाषासमिति
२.
३.
एषणासमिति
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१. स्थानांगसूत्र, अभयदेववृत्ति, ११२, पृ० ७५
२.
सर्वार्थसिद्धि, ६/२/७८६
३.
ज्ञानार्णव, १८/४; योगशास्त्र १/३४ पर स्वोपज्ञवृत्ति; उत्तराध्ययनसूत्र ६/२० तत्त्वार्थसूत्र, ६/४
४. योगशास्त्र, १/४१-४३
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'ईर्या' का अर्थ है - चर्या (गति) और समिति का अर्थ है . सम्यक् प्रवृत्तिं करना । अर्थात् गमन-क्रिया में सम्यक् प्रवृत्ति करना । विवेकपूर्वक स्वपर के लिए हितकारी, परिमित ओर असंदिग्ध अर्थ को बताने वाली दोषरहित भाषा का प्रयोग करना ।
एषणा का सामान्य अर्थ है - आवश्यकता या इच्छा तथा विशिष्ट अर्थ है - खोज या गवेषणा । संयतमुनि द्वारा अपनी आवश्यकताओं को सीमित करते हुए विवेकपूर्ण आहारादि ग्रहण करना ।
स्थानांगसूत्र, अभयदेववृत्ति, पत्र ३४३, पृ० २२६
५.
६. योगशास्त्र, १ / ३४ पर स्वोपज्ञवृत्ति
७.
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ज्ञानार्णव, १८/३. योगशास्त्र, १ / ३५
ज्ञानार्णव, १८/५-७ योगशास्त्र, १ / ३६ एवं स्वो० वृ०
८.
६.
ज्ञानार्णव, १८/८, ६: योगशास्त्र १/३७
१०. ज्ञानार्णव, १८ / १०,११: योगशास्त्र, १ / ३८
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