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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग में परस्पर साम्य-वैषम्य एवं वैशिष्ट्य
जैनयोग, पातञ्जलयोग, हठयोग एवं तन्त्रयोग का समन्वयात्मक एवं व्यापक स्वरूप जनता के समक्ष रखा। उन्होंने अपने एकमात्र ग्रन्थ 'ज्ञानार्णव' में पातञ्जलयोग में निर्दिष्ट आठ योगांगों के क्रमानुसार श्रमणाचार का जैन-शैली के अनुरूप वर्णन किया है। उनके उक्त निरूपण में आसन तथा प्राणायाम से सम्बन्धित अनेक महत्वपूर्ण विषयों का प्रतिपादन भी हुआ है। चूँकि मुनिचर्या में ध्यान को विशेष स्थान प्राप्त है, इसलिए 'ज्ञानार्णव' में भी ध्यान विषयक सामग्री प्रचुर मात्रा में वर्णित है। आ० शुभचन्द्र ने हठयोग एवं तन्त्रयोग में प्रचलित पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यान का विस्तृत व स्पष्ट विवेचन किया है ।
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आ० शुभचन्द्र कृत 'ज्ञानार्णव' की विषय शैली श्वेताम्बर जैन परम्परा के प्रतिनिधि आ० हेमचन्द्र ( १२वीं शती) कृत योगशास्त्र में भी द्रष्टव्य है। ऐसा प्रतीत होता है कि आ० हेमचन्द्र ने आ० शुभचन्द्र के विशालकाय 'ज्ञानार्णव' में ही कुछ मूल परिवर्तन कर उसका संक्षिप्त, परिष्कृत एवं परिमार्जित रूप उपस्थित किया है। उनके योगशास्त्र पर भी पातञ्जलयोग, हठयोग, तन्त्रयोग तथा जैनयोग का पर्याप्त प्रभाव परिलक्षित होता है । यहाँ यह ध्यातव्य है कि आ० शुभचन्द्र का ज्ञानार्णव जहाँ साधु जीवन की आधारभूमि पर स्थित है, वहाँ हेमचन्द्रकृत योगशास्त्र गृहस्थ-साधु जीवन की आधारशिला पर प्रतिष्ठित है और उसमें गृहस्थ व साधु दोनों के आचार का निरूपण हुआ है। दोनों ही आचार्यों के योग ग्रन्थों को देखकर आश्चर्य होता है कि पूर्ववर्ती जैन-जैनेतर योग की वर्णनशैली एवं भाषाशैली का अनुकरण करने वाले उक्त दोनों जैनाचार्यों ने अपने पूर्ववर्ती जैनाचार्य हरिभद्र की योगविषयक अभिनव शैली का कहीं उल्लेख नहीं किया। दोनों के योग ग्रन्थ केवल हरिभद्र की समन्वयात्मक शैली के अनुरूप जैनतत्त्वज्ञान और जैन आचार के समन्वित रूप के आधार पर जैनयोग का स्वतन्त्र एवं विशिष्ट स्वरूप प्रस्तुत करते हैं ।
आ० हरिभद्र की समन्वयात्मक शैली का अनुकरण करने वाले आचार्यों में प्रमुख स्थान उपा० यशोविजय (१८वीं शती) का है। उनके समय में योग-प्रणालियों की विविधता में अपेक्षाकृत अधिक वृद्धि हो रही थी तथा साम्प्रदायिक-भेद भी चरमसीमा को छू रहे थे। दर्शन एवं चिन्तन के क्षेत्र में भी परस्पर खंडन-मंडन की प्रवृत्ति जोर पकड़ रही थी । इन विषम परिस्थितियों में उपा० यशोविजय ने आ० हरिभद्र द्वारा प्रवर्तित चिन्तन परम्परा को आगे बढ़ाते हुए जैनयोग-साधना का व्यापक व विस्तृत निरूपण किया । उनके द्वारा प्रसूत योग साहित्य मौलिक और आगमिक परम्परा से सम्बद्ध होने के साथ-साथ तुलनात्मक एवं समन्वयात्मक दृष्टिकोण वाले अध्येताओं के लिए भी नवीनतम एवं उपयोगी सामग्री प्रस्तुत करता है जिसप्रकार सूत्रशैली में निबद्ध महर्षि पतञ्जलिकृत योगसूत्रों के गूढ़ अर्थों को समझने के लिए महर्षि व्यास, भोज, वाचस्पति मिश्र, विज्ञानभिक्षु आदि अनेक आचार्यों ने भाष्य एवं टीकाओं की रचना की, उसी प्रकार उपा० यशोविजय ने भी पतञ्जलि के योगसूत्र एवं आ० हरिभद्र के योगग्रन्थों के गूढ़ार्थ को समझाने के लिए अनेक व्याख्यापरक योग एवं अध्यात्म-ग्रन्थों की रचना की । इनके योगग्रन्थों का सर्वाधिक वैशिष्ट्य यह है कि उनमें स्पष्ट शब्दों में हठयोग का निषेध हुआ है और चित्त की बाह्याभिमुखी चित्तवृत्तियों को अन्तर्मुखी करने के प्रयासों पर अधिक जोर दिया गया है।
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समग्र रूप से विचार करने पर प्रतीत होता है कि उक्त चारों जैनाचार्य जैनयोग के आधारस्तम्भ हैं। इन सब की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इन चारों आचार्यों ने अपने-अपने युग का प्रतिनिधि बनकर तत्कालीन योग-साधना का ऐसा समन्वित व व्यापक स्वरूप प्रस्तुत किया जो सामान्य जनता को दिग्भ्रमित होने से बचाने तथा साम्प्रदायिक भेद को समाप्त करने में उपयोगी सामग्री प्रस्तुत करता है। अन्य आचार्य इन चारों का किसी न किसी रूप में अनुगमन करते प्रतीत होते हैं। अनेक आचार्य
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