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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
बिल्कुल नवीन है। केवल कुलय़ोगी की हरिभद्रीय अवधारणा पर पातञ्जलयोग सम्मत भवप्रत्यय योगी की अवधारणा का पर्याप्त प्रभाव परिलक्षित होता है। योगाधिकारी की प्राथमिक अनिवार्य योग्यता
योगाधिकारी की प्राथमिक व अनिवार्य योग्यता के सम्बन्ध में पतञ्जलि प्रायः मौन हैं। असम्प्रज्ञातसमाधि की चर्चा करते हुए उन्होंने केवल उपायप्रत्यय अधिकारी के लिए ही श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा आदि गुण अपेक्षित बताए हैं जिनकी तुलना जैन-साधना-मार्ग के सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान) से सहज ही की जा सकती है।
अष्टांगयोग के अधिकारी कौन व्यक्ति हो सकते हैं, इसका उल्लेख पतञ्जलि ने कहीं नहीं किया। इसका कारण सम्भवतः सभी व्यक्तियों को समान रूप से योग का अधिकार प्रदान करने की मान्यता हो।
योगाधिकारी की प्राथमिक व अनिवार्य योग्यता जैन-परम्परा में सर्वप्रथम आ० हरिभद्र को अनुभव हुई। उन्होंने अपने सभी ग्रन्थों में इसे भिन्न-भिन्न शब्दों में समझाने का प्रयास किया है। आ० शुभचन्द्र का ज्ञानार्णव चूँकि सामान्य व्यक्ति के लिए न होकर उच्चस्तरीय साधक अर्थात् मुनि के लिए है इसलिए उन्हें इसका वर्णन करने की आवश्यकता ही अनुभव नहीं हुई। आ० हेमचन्द्र एवं उपा० यशोविजय ने उसकी उपयोगिता को समझकर अपने पूर्ववर्ती आ० हरिभद्र का ही अनुसरण किया है। अन्तर इतना है कि आ० हेमचन्द्र ने उसे 'मार्गानुसारी के गुण' नाम से वर्णित किया है।
पूर्वभूमिका के रूप में आ० हरिभद्र की 'पूर्वसेवा' की कल्पना बहुत मार्मिक है। पूर्वसेवा' में गुरु-देवादि पूज्य वर्ग की सेवा, दीनजनों को दान, सदाचार, तप और मोक्ष के प्रति अद्वेष-भाव आदि लौकिकधर्म समाविष्ट हैं।
योग के साधक के लिए सर्वप्रथम यह जानना आवश्यक है कि शास्त्रों द्वारा केवल योग के सैद्धान्तिक पक्ष का ज्ञान होता है। योग के व्यावहारिकपक्ष को जानने के लिए योग्य गुरु का सान्निध्य अपेक्षित है। महर्षि पतञ्जलि ने स्पष्ट रूप से गुरु के सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा, परन्तु गुरु के रूप में ईश्वर की सत्ता को अवश्य स्वीकार किया है। ___ आ० हरिभद्र, शुभचन्द्र, हेमचन्द्र एवं उपा०. यशोविजय ने भी योग-मार्ग के शिक्षक के रूप में गुरु की आवश्यकता को अनुभव किया है। परन्तु आ० हरिभद्र ने केवल धर्म-गुरु को गुरु न मानकर सभी वृद्ध-जनों के प्रति गुरु-भाव रखने का आदेश दिया है। वृद्धजनों में माता-पिता, कलाचार्य, ज्ञातिजन, विप्र, वृद्ध आदि सभी को समाविष्ट किया है, क्योंकि ये सभी किसी न किसी रूप में व्यक्ति का मार्ग-निर्देशन करते हैं।
देव-पूजन की चर्चा करते हुए किसी एक देव विशेष का नामोल्लेख न करके आ० हरिभद्र ने सभी देवों के प्रति समान आदर रखने का उपदेश देकर भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों में देवों के नाम पर होने वाले मतभेद को दूर करने का सर्वसमन्वय सूचक मार्ग प्रशस्त किया है।
साधक में त्याग की भावना उत्पन्न करते हुए 'दान' को महत्व दिया जाता है। परन्तु आ० हरिभद्र ने पुण्य के लोभ में, अपने आश्रितों की उपेक्षा करके बिना सोचे-विचारे दान देने को अनुपयुक्त बताया है।
व्रतों के सम्बन्ध में जैनेतर-परम्परा में प्रचलित कृच्छ्र-चान्द्रायणादि व्रतों को भी योग की पूर्वभूमिका में स्थान दिया है। अपने इस उदार दृष्टिकोण से उन्होंने योग को सम्यग्दर्शन की संकीर्ण परिभाषा से ऊपर
१. योगबिन्दु, १०६ २. पातञ्जलयोगसूत्र, १/२६ ३. योगबिन्दु,११७, ११८
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