Book Title: Patanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Aruna Anand
Publisher: B L Institute of Indology

View full book text
Previous | Next

Page 294
________________ 276 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन जाने लगी। इसप्रकार पातञ्जलयोगसम्मत 'तारकज्ञान और जैन-परम्परा सम्मत प्रातिभज्ञान की एकता संगत होती है। जैनदर्शन में वर्णित वस्तु की उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप त्रिगुणात्मकता का संकेत पतञ्जलि-प्रणीत योगसूत्र में धर्म और धर्मी, आकृति और द्रव्य नाम से प्राप्त होता है। सम्यक्चारित्र जैन मोक्ष-मार्ग का अन्तिम व प्रमुख साधन है। जैनमतानुसार बिना आचरण (सम्यक्चारित्र) के ज्ञान परिपूर्ण नहीं होता, उसका कोई महत्व नहीं होता। ज्ञान के विकास के लिए आचरण आवश्यक है और आचरण के लिए ज्ञान । ज्ञान और क्रिया की संयुक्त साधना से ही साध्य की सिद्धि होती है, अन्यथा नहीं। पातञ्जलयोगसूत्र में भी अष्टांगयोग के अन्तर्गत सर्वप्रथम यम-नियम को चारित्र-निर्माण के साधन के रूप में चित्रित कर आचार-चारित्र को महत्ता प्रदान की गई है। जैन-परम्परागत चारित्र-वर्णन पतञ्जलि के यम-नियम से अधिक व्यापक है। वहाँ गहस्थ एवं साध के लिए पृथक-पृथक् आचार का विधान किया गया है। इनमें निम्न भूमिका गृहस्थ की है। उससे ऊपर की भूमिका मुनि की है। गृहस्थ जहाँ व्रतों का आंशिक रूप से पालन करता हुआ व्यावहारिक जीवन यापन में आध्यात्मिक समाधान की आकांक्षा करता है वहाँ मुनि व्रतों का सर्वतः पालन करते हुए पूर्ण त्याग-भाव से आध्यात्मिक विकास करता है। आ० हेमचन्द्र ने पातञ्जलयोगसूत्र में वर्णित यम-नियमादि अंगों को गृहस्थधर्म और साधुधर्म कहा है। जैन श्रावक अपने आचार-विचार के परिपालन से साधुत्व.तक पहुँच सकता है और साध्वाचार के सम्यक् परिपालन से मोक्ष प्राप्त कर सकता है। चारित्र की दृढ़ता एवं सम्पन्नता के लिए जैनदर्शन में विभिन्न व्रतों, क्रियाओं, विधियों, नियमों-उपनियमों का विधान किया गया है, जिनमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि पांच मूलभूत व्रतों को विशेष स्थान प्राप्त है। ये ही पांच व्रत योगदर्शन में पांच यमों के रूप में वर्णित हैं। इन पांच यमों की सार्वभौमिकता तथा अविच्छिन्नता जैनयोग में प्रयुक्त पांच महाव्रतों का ही रूप है। दोनों दर्शनों में उपर्युक्त व्रतों के सम्बन्ध में यह भिन्नता है कि जैनदर्शन के व्रत अपेक्षाकृत अधिक कठोर हैं। जैन-परम्परा में नियमों के अन्तर्गत स्व के अनुशासन के लिए द्रव्य, क्षेत्र, काल की मर्यादा सहित गुणव्रत, शिक्षाव्रत आदि धारण करने का निर्देश प्राप्त होता है। गुणव्रतों का विधान अणुव्रतों की रक्षा एवं विकास के निमित्त हुआ है। ये सब पतञ्जलि के द्वितीय योगांग नियम के ही प्रतिरूप हैं। इसीलिए उपा० यशोविजय ने पतञ्जलि के नियमों की जैन-परम्परा सम्मत व्याख्या भी प्रस्तुत की है। जैन-परम्परा में वर्णित दश धर्मों में संयम और तपधर्म पातञ्जलयोग में स्वीकृत प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि से साम्य रखते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि जैनाचार अत्यन्त मनोवैज्ञानिक पद्धति पर. आधारित है। आचार का इतना सूक्ष्म विवेचन अन्यत्र दुर्लभ है। आ० शुभचन्द्र ने प्राचीन जैनेतर योग-परम्परा में प्रचलित अष्टांगयोग एवं षडंगयोग का उल्लेख तो किया है, परन्तु विवेचन करते समय यम-नियम को छोड़कर शेष छ: अंगों को ही ग्रहण किया है। योग के तृतीय अंग 'आसन' का सामान्य सम्बन्ध शारीरिक साधना से है। शरीर को स्थिर करने से मानसिक स्थिरता लाने में सरलता होती है। प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान आदि योगांगों के सुचारू रूप से अभ्यास के लिए भी शरीर की स्थिरता व नीरोगता अनिवार्य है। इसलिए पातञ्जल एवं जैन दोनों योग-परम्पराओं में 'आसन' को स्थान दिया गया है। जैनयोग-परम्परा में 'आसन' के लिए 'स्थान' शब्द प्रयुक्त हआ है जो आसन की अपेक्षा अधिक व्यापक है। जैनग्रन्थों में चित्त की स्थिरता हेत किस आसन का अभ्यास किया जाए, किस का नहीं, ऐसा कोई नियम प्रतिपादित नहीं किया गया। इसलिए आ० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350