Book Title: Patanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Aruna Anand
Publisher: B L Institute of Indology

View full book text
Previous | Next

Page 295
________________ पातञ्जलयोग एवं जैनयोग में परस्पर साम्य-वैषम्य एवं वैशिष्ट्य शुभचन्द्र एवं आ० हेमचन्द्र ने जिस-जिस आसन का प्रयोग करने से मन स्थिर होता हो, उसी आसन का उपयोग योग-साधना में अपेक्षित बताया है। आ० शुभचन्द्र, हेमचन्द्र एवं उपा० यशोविजय ने कुछ आसनों के नामों का उल्लेख भी किया है जो उन पर हठयोग के प्रभाव प्रदर्शित करता है। जैनयोग में प्राणायाम से श्वास-प्रश्वास का निरोध अर्थ अभिप्रेत नहीं है। वहाँ प्राणायाम से भाव-प्राणायाम अर्थ लिया गया है। आ० शुभचन्द्र एवं हेमचन्द्र ने जहाँ प्राणायाम का मोक्ष-साधना के रूप में निषेध किया है वहाँ ध्यान की सिद्धि तथा मन को एकाग्र करने के लिए उसकी आवश्यकता भी अनुभव की है। उपा० यशोविजय ने तो स्पष्टतः प्राणायाम का निषेध किया है। उनके अनुसार प्राणायाम से न तो इन्द्रियों पर विजय प्राप्त होती है और न ही चित्त का निरोध हो सकता है क्योंकि हठपूर्वक प्राण का निरोध करने से योग-साधना में विघ्न उत्पन्न होता है । 'प्रत्याहार' जैनपरम्परागत प्रतिसंलीनता तप के समकक्ष है । पातञ्जल एवं जैन, दोनों परम्पराओं में इन्द्रियों की स्वाभाविक प्रवृत्ति का निरोध कर उसे अन्तर्मुखी करने पर जोर दिया गया है। परन्तु उपा० यशोविजय ने पतञ्जलि द्वारा इन्द्रियों के निरोध को उनकी परमावश्यकता का उपाय स्वीकार करने पर आक्षेप किया है। 277 साधना का क्रम जो लुप्त हो गया था, उसका चिन्तन कर आ० शुभचन्द्र एवं हेमचन्द्र ने धारणाओं की कल्पना की । सालम्बन ध्यान पर धारणा का चिन्तन किया जाता है। इन धारणाओं का चिन्तन वैदिकपरम्परा' एवं हठयोग- परम्परा से प्रभावित प्रतीत होता है। प्राचीन जैन- परम्परा में उल्लिखित "एकाग्रमनः सन्निवेशना" शब्द धारणा से पूर्ण साम्य रखता है। जैनयोग में ध्यान का अपना विशिष्ट स्थान है। वहाँ ध्यान का क्षेत्र इतना विस्तृत है कि वह अपने स्वरूप में ही धारणा और समाधि के स्वरूप को समाविष्ट कर लेता है पातञ्जलयोगसूत्र में धारणा और समाधि से कुछ सीमा तक भिन्न और स्वतन्त्र रूप से ध्यान का विवेचन हुआ है। आ० शुभचन्द्र और हेमचन्द्र ने जैन - परम्परा के ध्यानों का वर्णन तो किया ही है साथ ही हठयोग-परम्परा के पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ, और रूपातीत ध्यानों का भी जैनमतानुसार विवेचन किया है। ध्यान की ही उत्कृष्ट स्थिति समाधि है। जैनदर्शन में पातञ्जलयोगसूत्र की भांति पृथक् रूप से समाधि का योगांग के रूप में चित्रण अधिक नहीं मिलता। जैनदर्शन में समाधि को ध्यान रूप ही माना गया है । आ० हरिभद्रादि सभी प्रमुख जैनाचार्यों ने पृथक्त्ववितर्क- सविचार' और 'एकत्ववितर्क- अविचार' नामक दो शुक्लध्यानों को पातञ्जलयोगसम्मत सम्प्रज्ञातसमाधि तथा 'सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती' और समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति नामक दो शुक्लध्यानों को योग की असम्प्रज्ञातसमाधि के सदृश बताकर दोनों परम्पराओं में समन्वयात्मक दृष्टिकोण दर्शाने का प्रयास किया I आध्यात्मिक विकासक्रम आत्मिक विकास की पूर्णता जीव को सहसा ही उपलब्ध नहीं होती। इसके लिए उसे निरन्तर प्रयास करना पड़ता है। विकास के क्रमानुसार उत्तरोत्तर सम्भावित साधनों को सोपान परम्परा की तरह प्राप्त करता हुआ जीव अन्त में मोक्ष प्राप्त करता है। आध्यात्मिक विकास के क्रम में प्रारम्भ से लेकर अन्त तक की सभी अवस्थाएँ समाविष्ट हो जाती हैं। महर्षि पतञ्जलि के योगसूत्र में इस आध्यात्मिक विकास का ૧. २. शाण्डिल्योपनिषद् (उपनिषद् संग्रह), १ / ७० गोरक्षसंहिता २/५३-५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350