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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
वर्णन क्षिप्तादि पांच भमिकाओं के रूप में हुआ है. जबकि जैन आगमिक परम्परा में आध्यात्मिक विकासक्रम का वर्णन १४ गुणस्थानों के माध्यम से किया गया है। कुछ स्वतन्त्र चिन्तकों ने त्रिविध आत्मा अथवा त्रिविध उपयोग - इन तीन सोपानों में ही आध्यात्मिक विकास का क्रम निरूपित किया है। आ० हरिभद्र ने उक्त विविध निरूपणों से पृथक स्वतन्त्र रूप से आध्यात्मिक विकास के क्रमिक सोपानों का निरूपण करने का प्रयास किया है। __ आ० हरिभद्र ने अविकास अवस्था को ओघदृष्टि तथा विकास की अवस्थाओं को सदृष्टि के नाम से अभिहित कर क्रमानुसार सददृष्टि के आठ भेद किये हैं। आठ योगदृष्टियों में से प्रथम चार दृष्टियाँ यद्यपि विकासशील हैं तथापि उनमें अज्ञान व मोह का प्राबल्य रहता है। पश्चात्वर्ती चार दृष्टियों में ज्ञान तथा चारित्र की प्रबलता होती है क्योंकि अज्ञान तथा मोह क्षीण हो जाते हैं। इसप्रकार प्रकारान्तर से यह गुणस्थानों का ही निरूपण है।
आ० हरिभद्र द्वारा अध्यात्मादि एवं स्थानादि पांच योगभेदों को आध्यात्मिक विकासक्रम के सोपान रूप में स्वीकार करने पर पतञ्जलि के आठ योगांग भी आध्यात्मिक विकास के क्रमिक सोपानों में ही गिने जाने चाहिये। क्योंकि वहाँ भी एक के सिद्ध होने पर ही दूसरे की उपयोगिता दर्शायी गई है। सम्भवतः यही कारण है कि आ० हरिभद्र ने आठ योगदृष्टियों की तुलना पतञ्जलि के आठ योगांगों से की है। ___ आ० हरिभद्र ने अपने योगग्रन्थों में सम्यक्त्व को उच्च स्थान दिया है। लोक-व्यवहार के धर्म-व्यापारों का आचरण करने से साधक का दृष्टिकोण आत्मोन्मुख बन जाता है। इसीलिए उन्होंने दृष्टि के परिमार्जन के चार स्तर बनाए हैं। उसके पश्चात् सम्यक्त्व प्राप्त होता है। प्रथम दृष्टि में जीव यमों के प्रति केवल निष्ठावान बनता है उसका पालन नहीं करता। धीरे-धीरे वह उसका स्थूल दृष्टि से पालन करना प्रारम्भ करता है। सूक्ष्म दृष्टि से यमों का पालन 'प्रत्याहार' नामक पांचवें योगांग में ही सधता है। इसीप्रकार प्रथम दृष्टि में 'यम' तो सधता है पर 'अणुव्रत' नहीं। वस्ततः पतञ्जलि का अष्टांगयोग ऐसे व्यक्तियों के लिए निर्धारित प्रक्रिया है जिस ने कभी योग-साधना नहीं की।
चंकि योग की प्रारम्भिक अवस्था में जीव यम-नियमों के प्रति निष्ठावान बनता है इसलिए पतञ्जलि ने यम-नियम को योग की आधारभूमि के रूप में प्रस्तुत किया है। ___ यदि पतञ्जलि के यम और जैनदर्शन के व्रत को सदृश माना जाए तो यह अनुपयुक्त होगा क्योंकि दोनों में बहुत अन्तर है। जैनदर्शन के व्रत सम्यग्दर्शन अर्थात् यथार्थ श्रद्धान से युक्त होते हैं। साथ ही उनके व्रतों का पालन एक सामान्य व्यक्ति के लिए बहुत कठिन है। यही नहीं, असम्भव भी है। प्रारम्भ में ही कोई व्यक्ति जैनदर्शन सम्मत व्रतों का पालन करने में समर्थ नहीं हो सकता। इसीलिए आ० हरिभद्र ने उक्त व्रतों के पालन से पूर्व 'पूर्वसेवा' का निर्धारण किया है और अपने अन्य योग-ग्रन्थों में पृथक्-पृथक नामों से उल्लिखित कर उसकी आवश्यकता पर बल दिया है। उक्त पूर्वसेवा पतञ्जलि के यम-नियम से सादृश्य रखती है। यही कारण है कि आ० हरिभद्र ने पतञ्जलि के योगांगों पर सूक्ष्म दृष्टि से विचार कर उनकी तुलना योगदृष्टियों से की है।
आ० शुभचन्द्र ने प्राचीन जैन आगमों तथा पूर्ववर्ती आगमोत्तर ग्रन्थों का अनुसरण करते हुए आध्यात्मिक विकास की गुणस्थान-परम्परा को ही स्वीकार किया है तथा आगमोत्तरवर्ती स्वतन्त्र चिन्तकों द्वारा निरूपित त्रिविध आत्मा तथा त्रिविध उपयोग का भी वर्णन किया है।
आ० हेमचन्द्र ने प्राचीन जैनागमों की गुणस्थान-परम्परा का ही अनुसरण किया है और आगमोत्तरवर्ती त्रिविध आत्मा की व्याख्या भी प्रस्तुत की है इसके अतिरिक्त स्वानुभव के आधार पर मन की विक्षिप्त,
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