Book Title: Patanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Aruna Anand
Publisher: B L Institute of Indology

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Page 293
________________ पातञ्जलयोग एवं जैनयोग में परस्पर साम्य-वैषम्य एवं वैशिष्ट्य 275 उठाने का प्रयास तो किया ही है, साथ ही यह दर्शाने का भी प्रयास किया है कि जैनेतर साधना द्वारा भी सिद्धता प्राप्त हो सकती है। __भावों की प्रशस्तता और अप्रशस्तता के आधार पर भिन्न-भिन्न अनुष्ठानों का वर्णन भी आ० हरिभद्रकी अपनी विशेषता है। उन्होंने योग-सम्बन्धी भिन्न-भिन्न अनुष्ठानों का जिस विस्तार से निरूपण किया है, वैसा अन्यत्र कहीं प्राप्त नहीं होता और न ही वे किसी सम्प्रदाय-विशेष से बन्धे हुए प्रतीत होते हैं। योग-साधक के लिए आहार का निर्देश करते समय आ० हरिभद्र ने जैन और जैनेतर, दोनों परम्पराओं में सामजस्य स्थापित करने का प्रयास किया है। जैनेतर-परम्परा में वर्णित 'अल्पाहार' जैन-परम्परागत सर्वसम्पत्करी भिक्षा के रूप में प्ररूपित किया गया है। योग-मार्ग में प्रवेश करने वाले साधक को उपर्युक्त समस्त बातों का ध्यान अवश्य रखना चाहिये। तभी वह योग रूपी प्रासाद के उच्च सोपानों पर चढ़ने की सामर्थ्य प्राप्त कर सकता है। जैनयोग और आचार योग का आधार आचार है इसलिए पातञ्जलयोग एवं जैनयोग, दोनों परम्पराओं में आचार को प्रमुखता प्रदान की गई है। चूंकि आचार और विचार एक दूसरे के पूरक हैं इसलिए दोनों परम्पराओं में आचार को प्रधानता देने के साथ-साथ विविध दार्शनिक विषयों का आचार के साथ सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास किया गया है। योग का अंतिम लक्ष्य मोक्ष दोनों परम्पराओं में समान रूप से स्वीकृत है। जैनदर्शन में जिसे 'मोक्ष' कहा गया है वही पातञ्जलय में 'कैवल्य' के नाम से वर्णित है। पातञ्जलयोगसत्र में कैवल्य-प्राप्ति के लिए अभ्यास और वैराग्य, क्रियायोग (तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान) तथा अष्टांगयोग का विधान प्रस्तुत है जबकि जैन-परम्परा में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय का विवेचन है। इन तीनों में ही समस्त जैन आचार व तात्त्विक विवेचना समाहित है। जैन-परम्परा सम्मत सम्यग्दर्शन पातञ्जलयोगसूत्र में वर्णित विवेकख्याति के समकक्ष प्रतीत होता है। जैन-परम्परा के जीवाजीवादि तत्त्वों के स्थान पर पातञ्जलयोगसूत्र में व्यक्त और अव्यक्त तत्त्वों का उल्लेख हआ है। पतञ्जलि के योगसत्र में चित्तवत्तिनिरोध के उपायों में वर्णित ईश्वर-प्रणिधान एवं स्वाध्याय की चर्चा में सम्यग्दर्शन की ही भावना बीज रूप में प्रतिष्ठित दिखाई देती है। सम्यग्दर्शन के प्रतिपक्षी भाव मिथ्यात्व का स्वरूप पातञ्जलयोगसूत्र में वर्णित 'अविद्या' के स्वरूप के समकक्ष है। जैन-परम्परानुसार मिथ्यात्व के घोर अंधकार में डूबे सभी व्यक्ति सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं कर सकते। इस मान्यता के विरुद्ध पातञ्जलयोग में सभी व्यक्ति समान रूप से योग-साधना के अधिकारी माने गए हैं। जैन-परम्परा में सम्यग्ज्ञान को मोक्ष का द्वितीय साधन माना गया है जबकि पातञ्जलयोगसूत्र में कैवल्य प्राप्ति हेतु निर्दिष्ट उपायों में ज्ञान का स्पष्टतः कहीं उल्लेख नहीं हुआ है। वहाँ सम्प्रज्ञातसमाधि के सिद्ध होने पर ऋतम्भरा प्रज्ञा के उदय की जो बात कही गई है वह जैन-परम्परा के सम्यग्ज्ञान से भिन्न है। जैन-परम्परा का जो केवलज्ञान (सर्वज्ञता की स्थिति) है उसकी तुलना पातञ्जलयोग की विवेकख्याति से की जा सकती है। पातञ्जलयोगसूत्र में विवेकज्ञान से पूर्व प्रातिभज्ञान अपर नाम 'तारकज्ञान' का जो उल्लेख हुआ है, उसे जैन-परम्परा के केवलज्ञान से पूर्ववर्ती स्वानुभूति या स्वसंवेदन ज्ञान के समकक्ष माना जा सकता है। जैन-परम्परा में भी परवर्ती काल में इस स्वसंवेदन ज्ञान को प्रातिभज्ञान' की संज्ञा दी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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