Book Title: Patanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Aruna Anand
Publisher: B L Institute of Indology

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Page 288
________________ 270 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन इन्हीं चारों आचार्यों द्वारा उपस्थापित विचारधारा के ऋणी दृष्टिगोचर होते हैं। इसलिए जैन व जैनेतर समाज में इन्हें अधिक प्रसिद्धि प्राप्त हुई है। उनके योगग्रन्थों एवं पातञ्जलयोगसूत्र में परस्पर साम्य, वैषम्य एवं वैशिष्ट्य इस प्रकार है :योग : शब्दार्थ युज् धातु से निष्पन्न 'योग' शब्द के दो अर्थ हैं - १. 'युजिर् योगे' से संयोग (जोड़ना) और २. 'युज समाधौ' से समाधि । पतञ्जलिकृत योगसूत्र में योग शब्द 'समाधि' अर्थ में स्वीकृत है जबकि जैन-परम्परा में योग के 'संयोग' अर्थ का ग्रहण किया गया है। इस प्रकार दोनों परम्पराओं में योग के अर्थ के सम्बन्ध में भिन्नता दृष्टिगोचर होती है परन्तु सूक्ष्म रूप से विचार करने पर इस भिन्नता में भी समानता प्रतीत होती है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि 'समाधि' साध्य का और 'संयोग' साधन का प्रतीक है और दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। बिना साध्य के साधन की और बिना साधन के साध्य की सिद्धि सम्भव नहीं होती। इसी दृष्टिकोण के आधार पर महर्षि पतञ्जलि ने 'योग' शब्द का प्रयोग किया है। उनके योगसूत्र में स्वीकृत 'योग' शब्द में साध्य एवं साधन दोनों अर्थ ग्रहीत हैं। यम, नियम आदि आठ योगांगों में अन्तिम अंग समाधि जहाँ साध्य है, वहाँ समाधि से पूर्ववर्ती यम, नियम (जिसमें क्रियायोग भी समाहित है), आसन, प्राणायाम आदि साधन हैं। इन आठ अंगों की समष्टि ही सम्पूर्ण योग है। इस प्रकार पतञ्जलि द्वारा स्वीकृत 'योग' समाध्यर्थक होते हुए संयोगार्थक (साधनपक्ष) का भी प्रतीक है। हरिभद्रादि प्रमुख जैनाचार्यों को भी परमात्मतत्त्व की प्राप्ति के सभी साधन 'योग' शब्द से अभिप्रेत हैं। जिसप्रकार पतञ्जलि द्वारा स्वीकृत समाध्यर्थक योग में संयोगार्थक योग भी समाहित है, उसीप्रकार हरिभद्रादि प्रमुख जैनाचार्यों द्वारा ग्रहीत संयोगार्थक योग में समाध्यर्थक योग अन्तर्भूत है। आ० हरिभद्र ने मोक्ष के हेतुभूत सभी धर्मव्यापारों को 'योग' की संज्ञा दी और वह अन्य सभी जैनाचार्यों को अभीष्ट हुई। प्रायः परवर्ती आचार्यों ने हरिभद्र का ही अनुकरण किया है। आ० हरिभद्र ने समाध्यर्थक योग की अपेक्षा संयोगार्थक योग को ही क्यों स्वीकार किया ?' इस प्रश्न के उत्तर में यह कहना अनुचित न होगा कि. आ० हरिभद्र के समय में योग की अनेक साधन-प्रणालियाँ प्रचलित थीं, इसलिए उन्होंने तत्कालीन परिस्थितियों के अनुरूप साधनपक्ष पर जोर देना उचित समझा। इसके अतिरिक्त योग-याज्ञवल्क्य', योगशिखोपनिषद तथा अन्य वैदिक ग्रन्थों में भी संयोगार्थक योग शब्द स्वीकृत है। अतः सम्भव है कि आ० हरिभद्र पर उनका भी प्रभाव पड़ा हो। यद्यपि आ० हरिभद्र ने योग को संयोग अर्थ में ग्रहण किया है तथापि उनके द्वारा प्रतिपादित योगलक्षण 'मोक्ष-प्रापक धर्मव्यापार' में संयोग अर्थ (साधनपक्ष) और समाधि अर्थ (साध्यपक्ष) दोनों समाहित हैं। ___ आ० शुभचन्द्र एवं आ० हेमचन्द्र ने अपने समय में प्रचलित तन्त्रयोग, सिद्धयोग एवं हठयोग की प्रणालियों से प्रभावित होकर योग के साधनपक्ष को ही स्वीकार किया है, परन्तु जैन-परम्परा से सम्बद्ध होने के कारण उन्होंने जैन-परम्परा की रत्नत्रय एवं ध्यान साधना पर विशेष बल दिया है। उपा० यशोविजय ने भी आ० हरिभद्र का अनुसरण करते हुए योग के संयोग अर्थ को ही स्वीकार किया है। १. योग-याज्ञवल्क्य, १/४४ २. योगशिखोपनिषद्, १/६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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