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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
शब्दों के समानान्तर शब्दों अथवा उनके पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग भी इस युग के जैनसाहित्य में उपलब्ध होता है। __ जैन-परम्परा समन्वयवादी दृष्टिकोण की पक्षधर रही है और अनेकान्तवाद उसका मूल सिद्धान्त है। अतः यह कहना अनुचित न होगा कि आ० हरिभद्र को समन्वयात्मक, उदार एवं व्यापक दृष्टिकोण जैनपरम्परा की अनेकान्तदृष्टि से उत्तराधिकार में मिले थे। परन्तु उन्होंने जिस सूक्ष्मता एवं सूझबूझ से इन गुणों को अपने जीवन में आत्मसात किया, उसका उदाहरण जैन अथवा जैनेतर किसी भी परम्परा में नहीं मिलता।
उन्होंने प्रत्येक भारतीय दर्शन को परमसत्य का अंश बताकर उन सभी दर्शनों की परस्पर दूरी को मिटाने का प्रयास किया है। उनके अभिमतानुसार भिन्न-भिन्न शब्दों में ग्रथित सभी ग्रन्थ एक ही लक्ष्य व परमतत्त्व का प्रतिपादन करते हैं, इसलिए सत्य के गवेषक और साधना के पथिक को पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर विभिन्न मान्यताओं की समीक्षा करनी चाहिये तथा उनमें से जो भी युक्तिसंगत लगे उसे स्वीकार कर लेना चाहिये। अपनी इस उदार एवं समन्वयात्मक दृष्टि के आधार पर उन्होंने जैनयोग के क्षेत्र में उद्भावक के रूप मे प्रवेश किया। उन्होंने अपने पूर्ववर्ती योग विषयक विचारों में प्रचलित आगम-शैली की प्रधानता को तत्कालीन परिस्थितियों एवं लोकरुचि के अनुरूप परिवर्तित किया तथा जैनयोग का एक अभिनव, विविधलक्षी एवं समन्वित स्वरूप जनता के समक्ष रखा ताकि लोग विविध योग-प्रणालियों के भ्रमजाल में फंसकर दिग्भ्रमित न हो सकें। इतना ही नहीं, उन्होंने अपनी सर्वतोमुखी प्रतिभा, चिन्तन पद्धति एवं अनुभूति की अप्रतिम आभा से अनेकविध योगग्रन्थों की रचना कर जैनयोग साहित्य में अभिनव युग की स्थापना की। आo हरिभद्र ने जो सरणि प्रस्तुत की, उसका परवर्ती जैनाचार्यों ने सोत्साह अनुकरण किया।
१०वीं शती में कुछ परिमार्जित एवं विचारवान् योगियों ने 'सिद्धयोग' में त्रुटियाँ देखकर उसके विरुद्ध नाथ-सम्प्रदाय की सृष्टि की। नाथ-सम्प्रदाय के प्रथम रत्न गोरखनाथ माने जाते हैं, जिन्होंने सारे भारत में परिमार्जित, शुद्ध एवं सात्त्विक हठयोग का प्रचार किया और हठयोग विषयक अनेक ग्रन्थों की रचना की।
हठयोग का उद्देश्य शारीरिक तथा मानसिक विकास कराना है। यद्यपि इसमें आचार-विचार की शुद्धि पर भी बल दिया गया है तथापि आसन, मुद्रा एवं प्राणायाम द्वारा शरीर की आन्तरिक शुद्धि करके प्राण को सूक्ष्म बनाकर चित्तवृत्ति का निरोध करना, इसका मुख्य लक्ष्य है। कहा भी है कि केवल राजयोग की सिद्धि के लिए ही हठयोग का उपदेश दिया गया है। उक्त कथन से सिद्ध होता है कि राजयोग और हठयोग एक दूसरे के पूरक हैं।
११वीं शती में राजयोग (अष्टांगयोग), हठयोग और तन्त्रयोग आदि योग-प्रणालियों का प्राधान्य था। स्वाभाविक है कि इस युग के आचार्यों पर इस प्रक्रिया का प्रभाव पड़ा हो। दिगम्बर जैन-परम्परा के प्रतिनिधि आ० शुभचन्द्र (११ वीं शती) के समक्ष पतञ्जलि का योगसूत्र, राजयोग, हठयोग तन्त्रयोग तथा हारिभद्रीय योगसाहित्य उपलब्ध था। अतः उन्होंने आ० हरिभद्र के समन्वयात्मक दृष्टिकोण के अनुसार
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१. योगबिन्दु, ३
लोकतत्त्वनिर्णय, १८ भगवती प्रसाद सिंह, “चौरासी सिद्ध तथा नाथ सम्प्रदाय', कल्याण, (योगांक), पृ० ४६६-७०
नाथ सम्प्रदाय, पृ०६३-१०१, १२३-१४८ ५. केवलं राजयोगाय हठविद्योपदिश्यते । - हठयोगप्रदीपिका, १/२
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