Book Title: Patanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Aruna Anand
Publisher: B L Institute of Indology

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Page 284
________________ 266 योगविषयक अनेक महत्वपूर्ण प्रसंग, वेद, उपनिषद्, महाभारत, गीता, योगवासिष्ठ आदि ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं, परन्तु योग को व्यवस्थित एवं सम्यक्प प्रदान करने का श्रेय सर्वप्रथम महर्षि पतञ्जलि (ईसा पूर्व द्वितीय शती) को प्राप्त हुआ है। उन्होंने अपनी साधना-पद्धति का मूल अपनी परम्परा में ही स्थापित करते हुए कतिपय संशोधन कर विभिन्न पद्धतियों को सूत्रबद्ध कर योगशास्त्र' का रूप प्रदान किया जो 'पातञ्जलयोगदर्शन' नाम से प्रसिद्ध है । पतञ्जलिकृत योगग्रन्थ के प्रथम सूत्र 'अथयोगानुशासनम् के आधार पर वाचस्पतिमिश्र तथा विज्ञानभिक्षु आदि टीकाकार यह स्वीकार करते हैं कि पतञ्जलि योग के प्रवर्तक नहीं थे बल्कि एक संग्रहकर्ता थे । उनका मत है कि पातञ्जलयोगदर्शन का विकास 'हैरण्यगर्भशास्त्र' से ही हुआ है जो दुर्भाग्य से अनुपलब्ध । पतञ्जलिकृत योगसूत्र में चित्तवृत्तिनिरोध हेतु वर्णित ईश्वर-प्रणिधान (भक्तियोग), प्राणायाम ( हठयोग), विषयवती प्रवृत्ति (तन्त्रयोग), विशोका प्रवृत्ति (पंचशिख का सांख्ययोग), वीतराग विषयता (जैनों का वैराग्य) स्वप्न आदि का अवलम्बन (बौद्धों का ध्यानयोग) आदि विभिन्न साधना-पद्धतियाँ पतञ्जलि के पूर्ववती प्रचलित होने का प्रमाण प्रस्तुत करती हैं। पतञ्जलि ने पूर्ववर्ती इन योग-प्रणालियों को केवल संकलित कर योग का समन्वित रूप जनता के समक्ष रखने का प्रयास किया है। वर्तमान में योगदर्शन से तात्पर्य पतञ्जलि के सूत्रों से ही माना जाता है। उक्त ग्रन्थ में दार्शनिक पक्ष (तत्त्व- चिन्तन) की अपेक्षा साधना को और आत्मिक उन्नति के क्रमिक मार्ग को ही प्रधान रूप से प्रतिपादित किया गया है। पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन जहाँ तक जैन परम्परा का सम्बन्ध है, इसमें भी सैद्धांतिक पक्ष की अपेक्षा आचार पक्ष को अधिक महत्व दिया गया है। जैन तीर्थंकरों के जो उपदेश हैं, वे भी साधनामय जीवन में आगे बढ़ते हुए उच्चतम स्थिति पर तत्त्वों का साक्षात्कार करने के अनन्तर ही दिए गए । इस प्रसंग में यह विशेष उल्लेखनीय है कि प्राचीन भारतीय साधकों ने संकीर्णता की सदा उपेक्षा की है और उदारतापूर्वक विविध सम्प्रदायों में प्रचलित योग-क्षेमकारी सिद्धान्तों और साधना के मार्गों को बिना किसी संकोच के स्वीकार करते हुए विचारों का आदान-प्रदान किया है। अतः स्वाभाविक है कि वर्णन-शैली में भिन्नता होने पर भी 'पातञ्जलयोग' एवं 'जैनयोग' की साधना-पद्धतियों में समानता या अविरोध हो । महर्षि पतञ्जलि ने 'योग' शब्द को जिस समाधिपरक अर्थ में ग्रहण किया है, प्राचीन जैन वाङ्मय में, विशेषकर आगम साहित्य में वह उस अर्थ में प्रचलित नहीं था। जैनागमों में 'योग' शब्द कायिक, वाचिक एवं मानसिक प्रवृत्तियों के अर्थ में स्वीकृत है। जहाँ तक मोक्ष प्राप्ति का सम्बन्ध है वह दैहिक और भौतिक आसक्ति के उच्छेद से ही संभव है। इसलिए भारत में विशेषतः जैन- परम्परा में, 'तप' को मोक्षोपयोगी साधना के रूप में स्वीकार किया गया। आगे चलकर 'ध्यान' रूप आभ्यन्तर तप की श्रेष्ठता स्वीकार करने पर ध्यान व समाधि की प्रक्रिया को 'योग' के अर्थ में मान्यता दी जाने लगी। जैनागमों में भी योगसाधना के अर्थ में 'ध्यान' शब्द ही अधिक प्रयुक्त हुआ है। जैन परम्परा में ज्ञानयोग, क्रियायोग एवं ध्यानयोग का सुन्दर समन्वय दृष्टिगोचर होता है जो अन्यत्र दुर्लभ है। भक्ति को भी जैन-साधना में यथोचित स्थान प्राप्त हुआ है किन्तु उसे जैन तत्त्व- चिन्तन पद्धति के अनुरूप ढालने का प्रयास किया गया है। जैन तीर्थकर व प्राचीन ऋषि-मुनियों की साधना में उक्त साधना के प्रयोगात्मक पक्ष का दर्शन किया जा सकता है। १. २. 3. ४. पातञ्जलयोगसूत्र १/१ पर तत्त्ववैशारदी टीका वही, १/१ पर योगवार्तिक भारतीय दर्शन का इतिहास, भा० १, पृ० २३७ नैरञ्जन, श्री मौक्तिनाथ, 'पातञ्जलयोग दर्शन की प्राचीनता" कल्याण, (योगांक) पृ० २५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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